Monday, April 18, 2011

सुख-दुःख और मेरे माँ-पापा

 आज सुबह से ही पता नही क्यों अच्छा नही लग रहा है,रह-रहकर माँ पापा की याद जहेन में उफान मारती  रही...किसी काम में मन नही लग रहा था,पर ऑफिस आया हूँ तो काम करना ही पड़ेगा ये सोचकर बिना मन के काम में जुट गया...आज हनुमान जी की जयंती है सो भगवान के श्री चरणों में नमन करके उन्ही की एक खबर बनाने में जुटा   ...कुछ देर बाद मैंने अपने सबसे अच्छे मित्र{लेपटॉप}को बैग से बाहर निकला और मन में चल रही बातो को शब्दों की शक्ल देने लगा...
                                                   ज़िंदगी मां के आँचल की गांठों जैसी है...गांठें खुलती जाती हैं,किसी में दुःख और किसी में से सुख निकलता है...हम अपने दुःख में और सुख में खोए रहते हैं. बढ़ती उम्र के साथ न तो मां का आँचल याद रहता है और न ही उन गांठों को खोलकर मां का पापा से छिपाकर वो चवन्नी अठन्नी देना....याद नहीं रहती वो मां की थपकियां...चोट लगने पर मां की आंखों से झर झर बहते आंसू....शहर से लौटने पर बिना पूछे वही बनाना जो मुझे पसंद है...माँ शहर आते समय लाई, चूड़ा, बादाम और न जाने कितनी पोटलियों में अपनी यादें निचोड़ कर डाल देती है...याद रहता है तो बस बूढे मां बाप का चिड़चिड़ाना...उनकी झिड़कियां और हर बात पर उनकी बेजा सी लगने वाली सलाह...आज सोच रहा हूँ याद नहीं कब मां को फोन किया था...कभी ऑफिस में फोन आया तो यह कहते हुए काट दिया कि बिज़ी हूं बाद में करता हूं...वैसे मेरी माँ को फोन करना नहीं आता...घर में टेलीफोन भी लगा है और पापा ने मोबाईल भी खरीद कर दे रखा है...सरकारी टेलीफोन पर ज्यादा भरोसा नही है उन्हें...वैसे भी वो महीने में २० दिन आउट ऑफ़ आर्डर रहता है...माँ को पापा ने जो मोबाईल दिया है उसका बस एक बटन उसे पता है जिसे दबा कर वो फोन रिसीव कर लेती है... मुझे अच्छे से याद है जब भी पैसे चाहिए रहते थे कहीं से किसी से भी फ़ोन,मोबाईल मांगकर उनको याद कर लेता था...जरुरत आज भी पड़ती है लेकिन अब पैसे मांगने में शर्म आती है...मै आज भी नही भुला हूँ पिताजी की चिंता को,कुछ साल पहले तक हर पहली तारीख को नियम से ३००० रुपये का एक डी.डी. बिलासपुर भेज दिया करते थे...शायद ही कभी फोन पर कहना पडा हो मां-पापा पैसे नहीं है...जब मैंने अपनी मर्जी से प्रेम विवाह किया तो भी कुछ दिनों की नाराजगी के बाद उन्होंने मेरी खुशियों के लिए अपने अरमानो को हमेशा के लिए मन में दफ़न कर दिया...यक़ीनन हर माँ-बाप की इच्छा होती है उसका बेटा पढ़ लिखकर कुछ बने,वो धूम-धाम से उसकी शादी कर उसका घर बसायें.. अब मेरी माँ को मेरी बिटिया से बेहद प्यार है,उसके लिए वो किसी से कुछ भी नही सुन सकती...वैसे माँ-पापा ने मुझसे कभी कोई डिमांड नही की,आज भी फ़ोन करने पर सबसे पहला सवाल कैसे हो,घर कब आओगे...? मै जल्दी आऊंगा कहकर फ़ोन कट देता...यक़ीनन उस सवाल का जवाब मेरे पास नही होता...मै जिस चैनल में काम करता हूँ वहां शायद लोग मेरी काबिलियत से चिढ़ते है,मुझसे काम के दम पर नही निपट सकने वाले मेरे साथी दूसरी लगाई-बुझाई में व्यस्त रखने की कोशिश किये रहते है...जाहिर तौर पर मै सारे दिन का बड़ा हिस्सा उन लोगो की उलझन भरी बातो के बीच काटता हूँ...मेरा दिमाग स्थाई नही है तभी तो क्या-लिखने जा रहा था क्या लिख रहा हूँ...खैर वक्त के साथ मेरे बच्चे बड़े होते जा रहे है और माँ-पापा बूढ़े....कई माँ-बाप की इच्छा होती है उनकी औलाद उन्हें चारो धाम की यात्रा करवाए परन्तु मेरे माँ पापा को कभी किसी धाम घुमने की इच्छा नही हुई...माँ बहुत संकोची और रिजर्व स्वाभाव की है,कहीं भी आना-जाना पसंद नही करती...पापा सरकारी नौकरी में है सो उन्हें अपने काम-धाम में ही चारो धाम नजर आता है....मै उनसे करीब ४०० किलोमीटर दूर रहता हूँ चाहूँ तो कम से कम महीने में एक बार समय निकालकर उनके पास जा सकता हूँ लेकिन अब बड़ा हो गया हूँ,माँ-पापा से ज्यादा अच्छे दोस्त-यार लगते है...पता नही क्यों घर नही जाना चाहता...?कई-कई दिन,कई त्योहारों पर आँखे भीग जाती है उनको याद करते...अभी भी आँखों में पानी भरा है यक़ीनन लिखते हुए एक शब्द कई जगहों पर नजर आ रहे है...सोचता हूँ माँ -पापा से क्या बाते करूँगा...वही ऑफिस के बारे में कुछ बातें,तो कई बातो में आस-पड़ोस के लोगो का जिक्र....अब सोचता हूँ जाने हमने कितने सवाल पूछे होंगे मां-बाप से लेकिन शायद ही कभी डांट भरा जवाब मिला हो...लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए आज भी कुछ नहीं है,जो वक्त हम उन्हें दे सकते है उसे देने से भी पता नही क्यों परहेज करते है.... मै यकीन से कह सकता हूँ की हमारे बटुओं में सिर्फ़ झूठ है...गुस्सा है...अवसाद है...बनावटी चिड़चिडापन है...उनकी गांठों में आज भी सुख है दुःख है और हम खोलने जाएं तो हमारे लिए आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं है...अब नही लिखा जाता पर इन सब बातो का जिक्र करते-करते मै ये भूल क्यूँ जाता हूँ की मेरा भी एक बेटा है...

8 comments:

  1. बच्चा ज्यादा सोचने का नई, गाड़ी उठा, फेमिली को बिठा, दो दिन घर में रहकर आ, दुनिया नहीं पलट जायेगी.

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  2. बिलकुल, मैं, मेरे सबसे करीबी रिश्‍तेदार कमल भाई के शब्‍द शब्‍द से सहमत। तुरंत जाओ बाबू, तुरंत। दुनिया में सब मिलते है बार बार मिलते है, बस नही मिलते तो मां बाप नही मिलते। जाओ बाबू तुरंत जाओ ।

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  3. Kya sir ji aap ne hamari aankho ko bhi bhigo diya...aap ne jis tareeke se jindgi ki sachhai ko likha hai usase saf hai ki aap behad achhe insan hai....

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  4. satya prakash ji aap jahan bhi rahte ho pahli fursat me apne ghar jaiye....maa-baap se badi koi chez duniya me nhi hai....aap ka lekh aapki imandari aaur mata-pita ke liye man me base pyar ko darshata hai.....

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  5. so nice of dat u've written...actually we all r think same bt cant express but u did it very well...parents r our GOD and in our busy schedule v hav no time for worshiping them,,,that doesn't mean; they ignored by us...
    but yes !! we should give them the best we have,, only coz of them..

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  6. सुंदर और दिल से लिखा हैं आपने...इंसान की जिन्दगी में माँ और पिता तो उस बरगद की तरह है जो देना तो जानता है पर लेना नहीं...आप भले ही उनसे दूर सही पर आपके लेख से यह लगता है कि आपसे करीब उनका कोई नहीं....इस लेख के सहारे मैंने आज सत्या के भीतर छिपे उस प्रकाश को देखा और महसूस किया है ओ अब तक बादलो में कही छिपा हुआ था....आपको जाकर माँ-पापा से मिलना चाहिए.आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं. आप लिखते रहिये...लिखते रहिये... लिखते रहिये...

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  7. satyaprakash ji aapki is post ne aankhe bhigo dee lekin aapki lekhni me jo bhavnawo ka sagar hai,jin abhivyaktiyo ka samavesh hai vo tarife kabil hai...

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  8. gajab ke jajbaat......gajab ki likhawat.......i like it .......good satyaprakash

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