Saturday, October 23, 2010

ये कैसी पाठशाला...





सरकारी स्कूल,सरकार की व्यवस्था और सरकारी गुरुजनों को मैंने काफी करीब से देखा है...मध्यम वर्गीय परिवार से हू इस  कारण पढाई सरकारी स्कूल में हुई...पढ़ लिखकर माता पिता के सपने भी पूरे नही कर सका,मलाल आखरी साँस तक रहेगा....हर माँ-बाप की तरह मेरे माता-पिता ने भी डॉक्टर-इंजिनियर बनाने का ख्वाब संजो रखा था... मध्यम वर्गीय परिवार ही सही पर मेरी ख्वाहिशो का पूरा ख्याल रखा गया....मै डॉक्टर-इंजिनियर तो नही बन सका लेकिन अनुभव के पहले का ग्लेमर पत्रकारिता के भवर जाल में फासता रहा....अब लगता है पत्रकारिता के अलावा कुछ कर भी नही सकता...आज के दौर में भले ही लोगो ने पत्रकारिता को केवल और केवल कमाई[दलाली]का जरिया भले ही बना लिया हो लेकिन अब भी कुछ लोगो से उम्मीदे है...शायद उसी भीड़ से अलग निकल कर कुछ करने की सोच ने मुझे "नेगेटिव"पत्रकारिता का गुर सीखा दिया...मेरी कोशिश हमेशा सच को देखने की होती..इसमें कई साथियों को तकलीफ और नुकसान [रूपये]होता...खैर मै लिखने कुछ और बैठा था लिखने कुछ और लगा....शायद यहा भी अन्दर का सच शब्दों के जरिये बाहर निकल आया... मै इक सरकारी स्कूल की बदहाली और सरकारी तंत्र के सच को शब्दों में पिरोना चाहता हू...मैंने शहर से २४ किलोमीटर की दूरी पर टाडा गाव में ऐसा स्कूल देखा ज़हा कमरे ही नही है...जिला मुख्यालय से कोटा मार्ग पर ग्राम टाडा जहा की आबादी २००० की है;यहा शिक्षा की बदहाली की जो तस्वीर मैने देखी वो सरकार और सरकार के नुमाइंदो का झूठ से लबरेज गन्दा और काला चेहरा नही छिपा सकी...शिक्षा की अनिवार्यता का कानून बन गया शायद इसीलिए बच्चे पेड़ के नीचे बैठकर भविष्य के सपने संजो  रहे है...गाँव  वालो से पूछा तो मालूम हुआ कि सन २००८ जुलाई महीने में ४ लाख ६५ हजार रूपए स्वीकृत हुआ था....सरकारी फंड खर्च हो गया लेकिन स्कूल का भवन नही बन सका.....सरकारी रुपयों को जिला से लेकर गाँव के सरपंच तक ने पचा लिया, डकार भी नही ली...आलम ये है कि बच्चे आग उगलती धूप,तेज हवा यहाँ तक कि बारिश के थपेड़ो को अब  सहजता से बर्दास्त कर लेते है....वैसे तो गाँव की स्कूल में कभी बच्चे तो कभी गुरूजी नहीं आते लेकिन मुद्दा ये नही है...मुद्दा ये है की बच्चे तमाम दावों को चिढाते खुले आसमान के नीचे शिक्षा ग्रहण कर रहे है....सरकारी तंत्र की जड़े कितनी खोखली और गन्दी है ये मुझे टाडा में समझ आया...वैसे १५ साल की पत्रकारिता में मैंने कई बदहाल स्कूल देखे,कई खामिया देखी इस कारण टाडा में आसमान के नीचे बैठे बच्चो को देखकर बहुत ज्यादा आश्चर्य भी नही हुआ..मुझे ये भी लगा कि गाँव के लोग स्कूल को लेकर ज्यादा चिंतित और गंभीर नही है...गाँव में जिसने भी स्कूल के अभाव का जिक्र किया उसे केवल सरकारी रुपयों को दूसरो के द्वारा डकार लिए जाने मलाल था....मतलब बच्चो के सर पर छत हो,वो खुले आसमान की जगह कमरों में बैठे इसके लिए कम ही लोगो ने आवाज उठाई ..फँला-फँला लोग रूपये पचा गए....उस  कोलाहल के बीच पेड़ के नीचे गाँव की सरकारी पाठशाला चलती रही................... .

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