Friday, December 10, 2010

बड़ी "पोलिटिक्स" है भाई...

मुझे नफ़रत हैं ऐसे लोगों से लेकिन क्या करें, कुछ लोगों की दुकानदारी ही ऐसे चलती है... वो उस मछली के किरदार में होते हैं जो पूरे तालाब को गंदा कर देती है... जिनका स्वार्थ ही दूसरों को छोटा साबित करके ख़ुद को बड़ा बनाना है.....और आख़िर में अपनी आदत से मजबूर होकर वो अपने ज़मींदोज़ होने का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं....हालाँकि उस मार्ग में बढ़ते कदमो की आहट सुनाई नही पड़ती...
आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी दफ़्तर में काम करते हों....ज़रा बताइए, कितने लोग हैं आपके दफ़्तर में जो अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं.....अरे, लोग जिसकी नौकरी करते हैं, उसी को गाली देते फिरते हैं..... जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं.... मेरे दफ्तर में ऐसे दो चेहरे वालो की फेहरिस्त लम्बी है...लोग परस्पर किसी भी मुद्दे पर असहमत हों लेकिन अपनी नौकरी और बॉस को लेकर कामोबेश सभी एक दूसरे से सहमत होते हैं.....सभी का ‘संस्थागत मानसिक स्तर’ ख़तरे के निशान से ऊपर ही रहता है....सरकारी नौकर अपने अधिकारी से परेशान और प्राइवेट वाले अपने बॉस से......वैसे मेरे दफ्तर में मालिक को छोड़ दे तो सभी अपने-अपने स्तर पर बास होने का दावा करते है...मै तो पिछले कई बरस से यही समझने की कोशिश कर रहा हूँ आखिर बास है कौन ?
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ऑफ़िस में लोगों को अपना बॉस हिटलर का बेवकूफ़ क्लोन क्यों नज़र आता है? कर्मचारियों का मानना होता है कि बॉस तो कर्मचारियों को मज़दूर समझता है.... दफ़्तर के सर्वाधिक नाकारे लोग बॉस को गाली देते फिरते हैं....जिनके पास काम होता उन्हे बॉस और सहकर्मियों को गाली बकने का समय नहीं मिल पाता, लिहाज़ा वो घर आकर अपनी व्यस्तता का गुस्सा अपने बीवी-बच्चों पर निकलाते हैं....बॉस कितना भी अच्छा क्यूं ना हो कभी प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाता.....पता नहीं क्यूं, हर तरह का कर्मचारी अपने को शोषित मानता है......जो कुछ काम नहीं करते वो कहते फिरते हैं कि मेरी प्रतिभा को यहां कुचला जा रहा है, मुझे मौक़ा ही नहीं दिया जाता, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा.... कोई और धंधा पानी शुरू करूंगा... और जिनसे काम लिया जाता है, वो भी यही कहते घूमते हैं कि मेरा शोषण हो रहा है, वेरी वॉट लगा रखी हैं, गधों की तरह मुझसे काम लिया जाता है, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा....

ना जाने क्यूं कुछ लोग अपने जिस दफ़्तर को जहन्नुम बताते फिरते हैं, उसे ये जानते हुए भी नहीं छोड़ना चाहते कि उनके ना रहने से कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं.... वो जन्म भर की तरक्की की उम्मीद वहीं रहकर करते हैं, उनकी प्रतिभा भी पहचान ली जाए, सारे महत्वपूर्ण काम उन्ही से कराए जाएं, उनकी तनख्वाह भी उनके मन मुताबिक हर साल बढ़ा दी जाए, उनके अलावा किसी और को भाव ना दिया जाए..... अरे भाई, आप इतने ही प्रतिभावान हैं तो कहीं और किस्मत क्यों नहीं आज़माते.....ऐसे लोग अपनी नौकरी को गाली भी बकेंगे और रहेंगे भी वहीं.....ये भी ख़ूब है......वैसे ऐसे लोग बेवकूफी का स्वांग रचकर संस्था की आड़ में बाजार से जैसे हो सके नोट बटोरते है....इस खास प्रजाति के लोगो की असल औकात २ समोसे से शुरू होकर ५००-१००० रुपये तक दम तोड देती है....कभी जाल में कोई बुरा फंस गया तो ये लोग औकात से बड़ी बात करने से भी नही चूकते.....वैसे भी मेरी बिरादरी के चर्चे २जी स्पेक्ट्रम तक पहुँच गए है..... सच कहू प्रतिष्ठा भी इस खास प्रजाति के लोगो की ज्यादा नजर आती है....इन्हें  घर से लेकर अपनी जरुरत पूरी करने के लिये हर दिन किसी ना किसी की चाटुकारिता का नाटक करना पड़ता है,ये जिसे उस दिन का बकरा समझते है वो इनसे ज्यादा होशियार और चालक होता है....वो कथित बकरा हलाल{रूपये देने}होने से पहले सब कुछ अपने हिसाब से करवा लेता है...इस बीच अगर आपसे कुछ गलती हुई तो मोबाईल की घंटी बजने में भी वक्त नही लगता,फिर सफाई देने से लेकर दुबारा गलती ना होने की गारंटी भी वो पत्रकारिता का मुखौटा लगाये लोग लेते है...ऐसे में आप सोच सकते है की वो लोग दूसरी जगह जाकर मेहनत करेंगे ?बेवकूफ ही होगा कोई जो महीने की बधी-बधाई कमाई छोड़कर दूसरी जगह जायेगा...फिर भी कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि सबसे ज़्यादा काम तो वही करते हैं, फिर भी उनकी तनख़्वाह कितनी कम है और बाक़ी सारे तो बस गुलछर्रे उड़ाने की सैलरी पाते हैं....  वो लोग सोचते है की काम मैं करता हूं और पैसे दूसरों को मिलते हैं.....छोड़ूंगा नहीं.....ऐसे कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर करवाते है लेकिन उनकी बेशर्म बांछे हमेशा खिली नजर आती है....चलिए यही रुक जाता हूँ वरना नवसिखिये कलमकारों को ढक्कन भर शराब में लोटा भर पानी मिलाना पड़ जायेगा....

1 comment:

  1. ...man men umad rahe gubaar ko shabdon men pirokar vyakt ... bahut khoob !!!

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