Saturday, February 12, 2011

कुछ ना कहना सरकार...

अबूझमाड़ इलाके के छोटेडोंगर से अगवा पांचों जवानों को नक्सलियों ने 18वें दिन शुक्रवार को करियामेटा के पास जंगलों में जनअदालत लगाने के बाद रिहा कर दिया....जवानों को हथियारबंद नक्सलियों के दल ने 25 जनवरी को ओरछा से नारायणपुर आ रही बस को रोककर अगवा कर लिया था... जवानों की रिहाई सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश की मध्यस्थता के बाद संभव हो सका है... उनके साथ सात मानवाधिकार कार्यकर्ता और जवानों के परिजन भी करियामेटा के जंगल में गए थे.. ये खबर उन परिवारों के लिए अच्छी है जिनके यहाँ के होनहार सपूत बस्तर में नक्सलियों से मुकाबला करने तैयार है...अगवा जवानो में रामाधार पटेल (थाना पाली, छिंदपाली कोरबा), रघुनंदन ध्रुव (निवासी भरियाडोंगरी भरभतपुर रेंगाखार) व टी एक्का (नगपार जशपुर)। आरक्षक रंजन दुबे (रीवा) व मणिशंकर (चरोदा भिलाई) सभी सीएएफ 11वीं बटालियन के हैं, जिसका मुख्यालय जांजगीर में है... पांचों जवान धनोरा थाना में पदस्थ हैं...नक्सलियों ने पहली बार ऐसा किया हो ऐसा भी नही है,लेकिन इस बार नक्सलियों के चंगुल से अगवा जवानों को छुड़ाने सरकार ने कोई पहल नही की...पहली बार सरकार की लाचारी सामने थी ऐसा भी नही है...सरकार इस बार कुछ ज्यादा ही लाचार लगी तभी तो अगवा जवानो की रिहाई के लिए नक्सलियों की पहल का इन्तजार कर रही थी...सरकार के पांच जवान नक्सलियों के कब्जे में थे और सरकार आयोजनों में व्यस्त रही....इस पूरे मामले में संवेदनशील सरकार एक बार फिर कटघरे में है..
                                        सरकार  के समानांतर सरकार चलाने वाले नक्सली पांच जवानो को रिहा करने के लिए जनअदालत लगाते है,बाकायदा सरकार के नुमाइंदे,मानवाधिकार संगठन से जुड़े लोगो की मौजूदगी में नक्सली उन जवानों से पुलिस की नौकरी छोड़ने की शर्त रखते है जिसे ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया जाता है...सशर्त जवान रिहा कर दिए जाते है मगर क्या समस्या इतने पर ख़त्म हो जाती है...? यकीनन नही,नक्सलियों ने जनअदालत लगाकर जो फरमान सुनाया वो बस्तर के हालत को बयाँ करता है...बस्तर में सरकार का कोई नियंत्रण नही है,नक्सली जैसा चाहते है कर रहे है...क्योंकि नक्सल प्रभावित बस्तर में जहाँ सब कुछ हुआ वहां हजारो ग्रामीणों के अलावा जवानों की रिहाई में मधय्स्त्ता करने वाले स्वामी अग्निवेश के अलावा मानवाधिकार के जाने-माने ठेकेदार मौजूद थे लेकिन नक्सलियों से किसी ने ये सवाल नही पुछा की आखिर नौकरी छोड़ने के बाद उनके परिवार का क्या होगा...? मानवाधिकार की वकालत करने वालो को शायद ये तो पता ही होगा की बन्दूक की नोक पर नौकरी छोड़ने का हुक्म देना भी मानवाधिकार का हनन है...? 
                                   संवेदनशील मुख्यमंत्री, विश्वशनीय छत्तीसगढ़ और ना जाने क्या-क्या...इस तरह की बाते सुनकर मुगालते में रहना अब शायद सरकार की आदत में शुमार हो चला है,तभी तो सरकार अगवा जवानों के मसले में कुछ ख़ास नही बोले...उन्हें उम्मीद थी परिवार के लोग,मिडिया वाले कोशिश तो करेंगे ही...जवान रिहा हुए तो सिलसिला श्रेय लेने का शुरू हुआ...उस कतार में मेरी जमात{पत्रकारों}वालो की मौजूदगी सबसे आगे नजर आई...सबने अपने अपने तरीके से बताने की कोशिश की हमारी पहल पर नक्सलियों ने जवानों को रिहा किया है...कुछ सरकार की दलाली करने से भी बाज नही आये...इस पूरे मामले में एक सवाल अब भी सरकार,मानवाधिकार संगठन के ठेकेदारों और मेरी जमात वालो को हिकारत भी नजरो से देख रहा था...सवाल था अगर रिहा जवान नक्सलियों की बाते मान लेते है तो उनकी रोटी-रोजी का इन्तेजाम आखिर कौन करेगा...?     
                               इस मसले पर मिडिया से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि जवानों को छोड़ने का नक्सलियों का रुख सकारात्मक रहा है, वे उनका स्वागत करते हैं... उन्होंने स्वामी अग्निवेश को भी बधाई देते हुए कहा कि यदि वे बातचीत को आगे बढ़ाते हैं, तो हम भी तैयार हैं... जनअदालत में नौकरी छोड़ने के सवाल पर उन्होंने कहा कि पुलिस की नौकरी उनके परिवार के लिए रोजगार है, उसे छोड़ना उचित नहीं है...शायद सरकार समझ गई है नक्सल समस्या का हल उनके  बूते की बात नही है तभी तो सरकार ख़ामोशी से उनकी जन अदालतों में मौजूद रहती है,मानवाधिकार के लोग सारे सिद्धांतो को ताक पर रखकर अपनी दूकान चलाते रहना चाहते है...किसी ने रोटी की नही सोची;आखिर वो जवान जो महीने की सरकारी पगार पर बारूद के ढेर पर हर वक्त जान जोखिम में डाले रहते है उनका क्या होगा...? बस्तर में हालत कब सुधरेंगे कोई नही जानता,सरकार भी शायद नही चाहती हालात सुधरें तभी तो नक्सलियों की करतूतों पर हर बार कुछ कहकर कुछ ना कहना सरकार ने सीख लिया है....

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