अन्ना अभियान में एक नया मोड़ आ गया है, यह इसे निश्चित स्वरूप देने जा रहा है। अभियान आंदोलन की तरफ उन्मुख हो गया है। पिछले रविवार को एक दिवसीय धरने पर अन्ना के मंच पर आठ गैर-कांग्रेसी नेता आए। उनके बोलने से और मंच पर आने से दो अर्थ निकलते हैं, पहला अन्ना समूह अपने लक्ष्य को पाने के लिए संसदीय राजनीति का सहारा लेने जा रहा है। यह अपने आप में अन्ना अभियान के लिए नई बात है। दूसरा विपक्ष और अन्ना समूह में वास्तविक संवाद अब शुरू हुआ है।
हम जानते हैं कि अन्ना समूह अराजनीतिक है, खुद अन्ना हजारे की छवि एक नैतिक नेतृत्व देने वाले की है। जन साधारण उन्हें आध्यात्मिक भी मानता है, क्योंकि वह कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि लोकहित की भावना से प्रेरित होकर मौजूदा राजनीति के मर्म पर चोट कर रहे हैं। वे राजनीति विरोधी नहीं हैं, लेकिन मौजूदा राजनीति को बदलने का उनके मन में संकल्प दिखता है। यह प्रयास वैसे ही है, जैसे पारस पत्थर लोहे को सोना बनाने के लिए करता है। इस नए बदलाव में विपक्ष को अपना भविष्य दिख रहा है। अन्ना अभियान इसलिए आंदोलन की ओर उन्मुख हो गया है, क्योंकि स्थायी समिति के मसौदे पर अन्ना के बयान ने वह रास्ता खोल दिया है। उन्होंने मसौदा आने पर कहा कि राहुल गांधी के हस्तक्षेप से कमजोर मसौदा लाया गया है। इससे कांग्रेस में खलबली मचनी थी और मची। कांग्रेस नेताओं के जैसे-जैसे बयान आए हैं, उससे यह साफ हो गया है कि अन्ना का तीर सही निशाने पर बैठा।
अन्ना टोली के कई सदस्यों ने इस नए मोड़ से राहत की सांस ली है, वे पहले अपनी सांस अन्ना की चालों पर अटकी हुई महसूस करते थे। चूंकि अन्ना की अनेक चालें मनमौजी आदमी की होती थीं, आशंका जताई जाती थी कि उन्हें महाराष्ट्र के कांगे्रसी नेता प्रभावित कर लेते हैं। अन्ना और कांग्रेस में खुला खेल फर्रूखाबादी छिड़ गया है। इससे यह खतरा कम हो गया है कि कोई कांग्रेसी उन्हें प्रभावित कर सकेगा। अन्ना ने राहुल गांधी को निशाने पर लेकर जो अब तक की सबसे महत्वपूर्ण बात कर दी है, वह यह नहीं है कि लोकपाल का स्वरूप कैसा हो, बल्कि यह है कि इस बहस को उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के पाले से खींचकर कांग्रेस के आंगन में पहुंचा दिया है।बिना कहे अन्ना ने साबित कर दिया कि दरअसल मनमोहन सिंह फैसला नहीं करते हैं, फैसला तो सोनिया गांधी करती हैं और राहुल गांधी उसमें हस्तक्षेप करते हैं! यह स्पष्ट होते ही इसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े हो जाते हैं। अन्ना ने ऎलान कर दिया कि मजबूत लोकपाल नहीं बना, तो पहले विधानसभा चुनाव में और फिर लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के खिलाफ प्रचार की कमान संभालेंगे। चुनावी महाभारत की यह रणभेरी इसी ऎलान से निकल रही है। जिसे कांग्रेस से ज्यादा दूसरा कौन समझ सकता है।
इसके दबाव में प्रधानमंत्री ने आनन-फानन में सर्वदलीय बैठक बुलाई, जिसमें उन्होंने कहा कि यह विधेयक आम सहमति से पारित हो और इसमें दलीय राजनीति नहीं होनी चाहिए। मनमोहन सिंह अपनी ओर से यह वादा कर सकते हैं कि वे दलीय राजनीति नहीं करेंगे, लेकिन जब सर्वदलीय बैठक हो रही है, तो वहां संन्यासी नहीं बैठे हैं, वहां नेता बैठे हैं, जिनके सामने दलीय राजनीति से बड़ा कोई मुद्दा है ही नहीं, इसीलिए उस लंबी सर्वदलीय बैठक में आम सहमति नहीं बनी।तो अब रास्ता क्या है? सीधी-सी बात है सरकार अपना चेहरा बचाने के लिए संसद के इसी शीतकालीन सत्र में विधेयक लाकर कह सकती है कि हमने अपना वादा पूरा किया। सरकार चाहे तो 22 दिसम्बर तक इस विधेयक को पारित करवाकर जनता की निगाह में अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहेगी।
अब सरकार जिस तरह का विधेयक लाएगी, उसके कुछ संकेत मसौदे में हैं और कुछ बातचीत में उभरे हैं, सीबीआई को सरकार अपने नियंत्रण मे रखना चाहेगी। मुझे याद है और यह बहस पुरानी है और जब यह छिड़ी थी, तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था, 'केन्द्र सरकार अगर सीबीआई को अपने अघिकार क्षेत्र से बाहर कर देती है, तो शासन का कोई मजबूत उपकरण उसके पाeस्त्रiह्लश्riaद्य ह्यpeष्iaद्यस बचेगा नहीं।' यही सोच कांग्रेस की और सरकार में बैठे नेताओं की है। कोई दूसरी पार्टी सत्ता में होती, तो वह भी सीबीआई को नियंत्रण से बाहर नहीं होने देती।
लोकपाल के मसौदे पर सीबीआई सहित बहुत सारे बिन्दुओं पर गंभीर असहमति है और इसकी संभावना बहुत कम है कि मनमोहन सरकार इतनी झुक जाए कि विपक्ष और अन्ना हजारे की सारी बातों को मान ले। इसलिए परिणाम यह होगा कि लोकपाल से ही बहुत दिनों बाद इस देश में राष्ट्रीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद का माहौल पैदा होगा। यूपीए विरोधी एकता को किसी भी नजरिये से आप देखें, कहा जा सकता है कि यह चुनावी एकता होगी और यह एकता यूपीए का बाजा बजा देगी ! लोकपाल पर अन्ना ने घोषणा की है कि उसके मनमाफिक विधेयक पारित नहीं हुआ, तो 27 दिसम्बर से पुराने गवालिया टैंक मैदान पर अन्ना आमरण अनशन पर बैठेंगे। वह अब आजाद मैदान कहलाता है। उसी मैदान से 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने दो नारे दिए थे, करेंगे या मरेंगे और अंग्रेजों भारत छोड़ो। उस नारे को याद दिलाता हुआ अन्ना का अनशन नई राजनीति की घोषणा कर सकता है। लोकपाल का विषय ही ऎसा है, जिस पर आम सहमति कठिन है और इस समय तो असंभव दिखती है। चनुावी राजनीति ने लोकपाल को अब व्यापक राजनीति का हिस्सा बना दिया है और अब लोकपाल से आगे अन्ना हजारे और विपक्ष दो मुद्दे उछालेंगे, पहला चुनाव सुधार का और दूसरा व्यवस्था परिवर्तन का। इसी अर्थ में अन्ना का आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन का स्वरूप ग्रहण कर सकता है।
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