

१३अगस्त को "पीपली लाइव" रिलीज हुई, मैंने फिल्म का प्रोमो देखा और लोगो की जुबानी काफी कुछ सुना....कुछ लोगो को फिल्म अच्छी लगी,कुछ ने इंटरवल के पहले ही टॉकीज से वापसी कर ली...."महंगाई डायन" को देखने की कई बार इच्छा हुई लेकिन वक्त की बेवफाई हमेशा मेरे पीछे साये की तरह होती....काम की वयस्तता कहे या फिल्म के लिए अलग से मुहूर्त नही निकाल पाया... आख़िरकार कुछ दिनों बाद "महंगाई डायन"परदे से उतर गई....पूरे तीन महीने सात दिन बाद {१९नव्म्बर} मै बिना काम के दफ्तर में बैठा था,कोई ऐसा था नही जिससे बातचीत करता मै तत्काल पड़ोस की सीडी दुकान पर गया और कुछ घंटे की उधारी पर "नत्था" को ले आया.....अपने लैपटॉप पर ही मैंने बड़े परदे का मजा लेने की कोशिश की.....'पीपली लाइव' को देखकर लगा जैसे वो पत्रकारिता पर चोट करती है, फिर लगा है कि शायद अफ़सरशाही इसके निशाने पर है या फिर राजनीति....सच कहू तो यह फ़िल्म पूरी व्यवस्था के मुंह पर तमाचा है........ऐसी व्यवस्था जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है लेकिन उसके लिए नहीं जो जीना चाहता है.......ये उन पत्रकारों पर तमाचा है जो लाइव आत्महत्या में रुचि रखते हैं ,तिल-तिल कर हर रोज़ मरने वाले में नहीं..........फ़िल्म न तो नत्था किसान के बारे में है और न ही किसानों की आत्महत्या के बारे में. ये कहानी है उस भारत की जहां इंडिया की चमक फीकी ही नहीं पड़ी है बल्कि ख़त्म हो गई है....उस भारत की जो पहले खेतों में हल जोतकर इंडिया का पेट भरता था और अब शहरों में कुदाल चलाकर उसी इंडिया के लिए आलीशान अट्टालिकाएं बना रहा है...फिल्म में जहां तक नत्था के मरने का सवाल है जिसे केंद्र में रख कर आमिर ख़ान ने पूरा प्रचार अभियान चलाया है,उसके बारे में इतना ही कहूंगा कि नत्था मरता नहीं है उसके अंदर का किसान ज़रुर मरता है जो आज हर भारतीय किसान के "घर-घर की कहानी"बन चुकी है.......अनुषा रिजवी निश्चित रूप से बधाई की पात्र हैं जो उन्होंने ऐसे मुद्दे पर फ़िल्म बनाई. अंग्रेज़ी में जिसे ब्लैक ह्यूमर कहते हैं...उसकी भरमार है और यही इसकी थोड़ी कमज़ोर स्क्रिप्ट का अहसास नहीं होने देती.......यह फ़िल्म एक बार फिर इस बात का अहसास दिलाती है कि हम कैसे भारत में रह रहे हैं. वो भारत जो न तो हमारे टीवी चैनलों पर दिखता है और न ही हमारे नेताओं की योजनाओं में...
मुद्दा ग़रीबी नहीं है...मुद्दा जीने का है..चाहे वो मिट्टी खोदकर हो या मर कर. क्या फ़र्क पड़ता है गांव की मिट्टी खोद कर मरें या कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए मिट्टी खोदते-खोदते ........फ़िल्म को अंतरराष्ट्रीय सर्किट में पसंद किया जा रहा है और किया जाएगा. हो सकता है लोग कहें कि इसमें भारत की ग़रीबी को ही दिखाया गया (जैसा कि स्लमडॉग मिलियनेयर के बारे में कहा गया था) मैं तो यही कहूंगा कि यही सच्चाई है........पत्रकार, अफ़सर और राजनेता ये फ़िल्म ज़रुर देखें और अपनी कवरेज योजना और व्यवहार में थोड़ी सी जगह इस असली भारत को दें तो शायद अच्छा होगा.
... ek se ek gambheer samasyaaon se joojhataa desh ... ek shaandaar film ... jaandaar post !!!
ReplyDeleteसत्या जी सरकारी योजनाओं का जो हश्र हो रहा है वो तो आप देख ही रहे है
ReplyDeleteशायद अब बहस छिड़नी चाहिए की बी पी एल को देने वाली सुविधाएँ कहाँ तक उचित हैं , अब जबकी ये ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा माध्यम बन गयीं हैं , क्यों न इन योजनाओं को बंद कर दिया जाये ? इसकी जगह इन योजनाओं के पैसे से , काम पर आये व्यक्ति को प्रतिदिन पांच सौ से ऊपर मेहनताना दिया जाये . शायद कथित गरीब की स्थिति में सुधार हो . गरीबी कम हो , हर गरीब परिवार अपने आप ए पी एल में आ जायेगा , इन्कोमे टैक्स पेयी हो जायेगा , बी पी एल की योजनाओं से तो पिछले दशक में गरीबों की संख्या में इजाफा ही हुआ है , साथ ही साथ सब कुछ मसलन , पी डी एस , सायकल , स्वस्थ्य सुविधाएँ , आवास , गणवेश , किताबें , बकरा मुर्गा , सूअर , गाय, बैल यहाँ तक की जमीन भी मुफ्त मिलने गरीब और गरीब और आलसी भी हो रहा है
एक विचार मेरा भी इस पृष्ठ भूमि के लिए