Friday, June 24, 2011

भारतीय स्त्री और...


पिछले कुछ अरसे से भारतीय मीडीया में भारतीय स्त्री का अस्तित्व बहुत ही मुखर होकर उभरा है चाहे वह कला व साहित्य हो, टेलेविजन हो या हिन्दी सिनेमा हिन्दी साहित्य में यह बोल्डनेस साठ के दशक से आरंभ होकर आज मैत्रेयी पुष्पा के बहुचर्चित उपन्यास चाक और मृदुला गर्ग के कठगुलाब तक चली आ रही है उस पर विशुध्द कला और साहित्य को तो मान लिया जाता है कि कुछ बुध्दीजीवी लोगों का क्षेत्र है नैतिक-अनैतिक शील-अश्लील की बहस उनमें आपस में होकर खत्म हो जाती है आम आदमी का क्या वास्ता?
                किन्तु टेलेविजन और सिनेमा?? जब तक दूरदर्शन विशुध्द भारतीय छवि में रहा, वहां स्त्री अपनी पूर्ण मर्यादा के साथ दिखाई जाती रही, और विवाहेतर सम्बंध से पुरूषों को ही जोडा जाता था, वह भी पूरे खलनायकी अन्दाज में और दर्शकों की पूरी सहानुभूति पत्नी के साथ होती थी जैसे ही अन्य चैनलों का असर बढा और बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल की तर्ज पर शोभा डे और महेश भट्ट के स्वाभिमान जैसे कई धारावाहिक बने जिनमें विवाहेतर सम्बंधों को बहुत अधिक परोसा गया, ऐसे में दूरदर्शन भी पीछे न रहाझडी लग गई ऐसे धारावाहिकों की और अब यह हाल है कि बहुत गरिष्ठ खाकर दर्शकों को जब उबकाई आई और ये धारावाहिक अब उबाने लगे तो ऐसे में आजकल एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी जैसे भारतीय संस्कृति से जुडे धारावाहिकों का सुपाच्य रूप फिर से लोकप्रिय हो गया
और हिन्दी सिनेमा! समानान्तर फिल्मों में कुछ पुरूषों के विवाहेतर संबंधों को जस्टीफाई करती अर्थ,  ये नजदीकियां जैसी कुछ फिल्में आई थीं जो कि एक अलग सोसायटी का प्रतिनिधित्व करती थीं
किन्तु अभी पिछले दो-चार सालों रीलीज्ड़ फिल्मों आस्था और अस्तित्व जैसी फिल्मों ने स्त्री की सेक्सुएलिटी पर बहुत ही गंभीर किस्म के प्रश्न उठाए हैं यह प्रश्न चौंकाने वाले थे, क्योंकि इसमें विवाहेतर संबंध रखने वाली स्त्री शोभा डे के उपन्यासों की उच्च वर्ग की वुमेन लिब का नारा लगाती स्त्री नहीं थी, न निचले तबके की मजबूर स्त्री थी 
                 यह तो भारतीय समाज का प्रतिनीधित्व करने वाले वर्ग मध्यमवर्ग की नितांत घरेलू, खासी पारम्परिक स्त्री और उसकी मायने न रखने वाली नारी की देह और इच्छाओं पर गंभीर प्रश्न उठा था इस प्रश्न ने सबको सकते में डाल दिया था पुरूष सोचता रहा क्या ये भी हमारी तरह सोच सकती हैं? स्त्री स्वयं हतप्रभ थी, क्या उसका भी घर-परिवार से अलग अस्तित्व हो सकता है? ये कैसे प्रश्न थे, जो आज तक तो उठे नहीं थे इसे तो पश्चिमी सभ्यता का असर कह कर टाला नहीं जा सकता क्या ये नए प्रश्न कुछ सोचने को मजबूर नहीं करते अगर साहित्य और मीडिया समाज का दर्पण हैं तो...

Tuesday, June 7, 2011

देश के इतिहास की सबसे बड़ी रामलीला

अनशासन यानी अनशन का आसन। बाबा रामदेव हठयोग पर उतर आए हैं। वह सरकार से शीर्षासन कराना चाहते हैं। वैसे बाबा की बाबागिरी का विवादों से पुराना रिश्ता है। वह विवाद पैदा कर मीडिया में बने रहते हैं। मामले को वो उठाते जरूर हैं लेकिन उस पर 'अडिग आसन' नहीं लगाते। पिछले कई दिनों से बाबा की रामलीला को देश देख रहा है। रामलीला मैदान पर शनिवार की रात जब महाभारत शुरू हुई तो रामदेव मंच से कूदकर भाग गए।कांग्रेस और राम के विरोधियो को मौक़ा मिल गया वो तो जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहे है सत्याग्रह करने वालो रणछोड़ नही होते।कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह बाबा को ठग,झूठा और ना जाने क्या क्या कहते थक नही रहे है वहीँ आर.एस.एस. और भाजपा को कांग्रेस के खिलाफ बैठे बिठाये चिल्लाने का एक मौक़ा मिल गया।मुझे याद है रामदेव ने कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली मल्टीनैशनल कंपनियों पर जब उन्होंने हमला किया था तो खूब हो-हल्ला मचा था। तब बाबा ने कहा था कि कोल्ड ड्रिंक से टॉयलेट साफ किया जाए, तो तेजाब की जरूरत नहीं रह जाएगी। थोड़े दिन तो बाबा इन कंपनियों से मोर्चा लेते रहे, पर बाद में इस मुद्दे को भूल गए। सवाल यही है कि काले धन के आंदोलन पर भी वह कितने दिन टिके रहेंगे और रामलीला मैदान से शुरू हुई उनकी पांच सितारा लीला आखिर कब तक जारी रहेगी? सरकार ने रामलीला मैदान में महाभारत शुरू की तो बाबा हरिद्वार पहुंचा दिए गए,अभी वो वहीं से चिल्ला रहे है बाबा अपनी राजनीतिक बाबागीरी करते हुए किस मुकाम तक पहुंचेंगे यह तो आनेवाला वक्त बेहतर बताएगा। लेकिन बाबा का योगगीरी में कोई जवाब नहीं है। उन्होंने अपने योग ज्ञान से देश-दुनिया में अलोपथी दवाएं बनाने वाली कंपनियों के खिलाफ एक सार्थक हस्तक्षेप किया। योग विद्या को उन्होंने आसान तरीके से सबके सामने रखा और एक टीवी चैनल से शुरू की हुई अपनी यात्रा को उन्होंने इस मुकाम तक पहुंचा दिया कि आज उनके पीछे करोड़ों लोग हैं। यक़ीनन इसी मुगालते में बाबा उन कर्मयोगियो {कांग्रेस}की पार्टी से टकरा गए है जिनको भर्ष्टाचार,झूठ और राज करने का ६ दशक का अनुभव है,वो अनुभवी नेता अब बाबा की फजीहत पर उतारू हो चुके है ....
              जो मुझे लगा... रामदेव और अन्ना हजारे प्रसंग में गांधी का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है...अन्ना के सात्विक अनशन के वक्त देश को गांधी की याद आई..कुछ ने अन्ना में गांधी ढूंढ़ना शुरू भी कर दिया...अन्ना हजारे भले मानुष हैं...उन्होंने ऐसी चाटुकारिता को खारिज करते हुए सत्य कहा कि वे तो गांधी के पैर की धूल के बराबर भी नहीं हैं. इसके बरक्स बाबा रामदेव बहुत चतुराई के साथ अपने अनशन आंदोलन को गांधीवादी नस्ल का करार दे रहे हैं. वे बात बात में गांधी जी की याद करने लगते हैं जिससे लोग रामदेव के मार्फत गांधी को नहीं भूले. ऐसा करने से गांधी का नुकसान और रामदेव का फायदा तो होता है...रामदेव कैमरे के सामने बार बार एकालाप कर रहे हैं कि गांधी होते तो दिल्ली पुलिस की बर्बरता देखकर रोने लगते. इतिहास में गांधी कभी नहीं रोए...अलबत्ता वे लोगों की आंखों से बहने वाले आंसू पोछते रहे...गाँधी आत्म क्रूर व्यक्ति थे...उन्होंने अपनी भावनाओं पर मनसा वाचा कर्मणा नियंत्रण कर लिया था. साबरमती आश्रम के एक कुष्ठ रोगी का मलमूत्र साफ करने से इंकार करने पर गांधी ने अपनी उस बड़ी बहन को आश्रम निकाला दे दिया जिसे मातृविहीन गांधी अपनी माता कहते थे. अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ उन्होंने ऐसा ही सलूक किया था. करोड़ों की दवाइयां बेचने वाले स्वामी रामदेव के आश्रम या योगपीठ में कितने कुष्ठ रोगियों की मुफ्त सेवा हो रही है?अद्भुत सांस्कृतिक विचारक राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि त्रेता के राम रोऊ थे. पत्नी सीता के अपहरण के बाद वे जंगल में पशु पक्षियों और पेड़ पौधों से रो रोकर सीता का पता पूछते थे. इसके बरक्स द्वापर के कृष्ण कभी नहीं रोए. जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था केवल तब कृष्ण की आंखें डबडबाई थीं. रामदेव ने तो खुद का चीरहरण किया और रोए भी. भट्टा पारसौल में जब मायावती की पुलिस स्त्रियों का चीरहरण कर रही थी तब रामदेव दूरदर्शन पर क्यों नहीं रोए? भट्टा पारसौल के निकट नोएडा में अनशन करने के लिए उन्होंने मायावती से क्या इसलिए अनुमति मांगी है कि वे टेलीविजन चैनलों के मुख्यालयों के नज़दीक होने के कारण हंस हंसकर अपनी प्रचार दुकान सजाएं? गांधी ने महाभारत के अठारह अध्याय पढ़े थे, अठारह पुराण भी. वे शांति पर्व को महाभारत का निकष बताते हैं. वे तो यहां तक कहते हैं कि गीता युद्ध की निस्सारता का दस्तावेज है. इससे गांधी के समकालीन संघ परिवार के पूर्वज सावरकर सहमत नहीं थे. सहमत तो लोकमान्य तिलक भी नहीं थे...आज जो लोग हिन्दुस्तान की राजनीति में धार्मिक नफरत, जातीय विद्वेष और आतंकवादी हिंसा घोलने के पंजीबद्ध अभियुक्त हैं, वे भी. रामदेव अपने मंच पर उनका सम्मान क्यों करते हैं. गांधी कभी भी चार्टर्ड हवाई जहाज या हेलिकॉप्टर से यात्रा नहीं करते थे. रामदेव द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में यात्रा क्यों नहीं करते? अरबपति लोग और फिल्मी तारिकाएं उनके चेले चेलियां क्यों हैं? बाबा ने विदेशों में जमीन क्यों ले ली है. बाबा ढेरों कंपनियों के निर्माता क्यों हैं? गाधी तो सादगी के पुजारी थे. यदि उन्हें आंदोलन करना भी होता तो वे अठारह करोड़ रुपया खर्च कर देश के इतिहास की सबसे बड़ी रामलीला आयोजित नहीं करते. पता नहीं रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण पर कितना खर्च हुआ होगा? चंपारण का नील सत्याग्रह हो. दांडी का नमक मार्च हो या देश में की गई हरिजन यात्रा हो-गांधी ने वह सब तामझाम कहां दिखाया, रामलीला मैदान जिसका इतिहास में पूंजीवादी प्रस्थान बिंदु होगा. गांधी के मुंह में तो क्या मन में भी अंगरेजों के लिए कोई नफरत नहीं थी. अंगरेजियत से उनको अलबत्त नफरत थी. बाबा को अपने आलोचकों, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह वगैरह से नफरत क्यों है? गांधी ने तो कभी भी अंगरेज प्रधानमंत्री और भारतीय वाइसरॉय से बोलचाल की खुट्टी नहीं की. चर्चिल ने ही तो गांधी को ‘नंगा फकीर‘ कहा था. गांधी ने इतिहास में सिद्ध किया कि वे वास्तव में दिगंबर फकीर हैं. अंगरेज के पास शब्दों का टोटा था इसलिए उसने दिगंबर शब्द का उच्चारण नहीं किया. रामदेव भगवा फकीर क्यों नहीं कहलाना चाहते जिसके प्रवर्तक विवेकानन्द हैं?
योग की अमरबेल 
हरियाणा के महेंद्रगढ़ के अली सैयदपुर नामके एक साधारण से गांव में 25 दिसंबर, 1965 में जन्मे बाबा रामदेव के बचपन का नाम रामकृष्ण था। 9 वर्ष की उम्र में वह रामप्रसाद बिस्मिल और सुभाष चंद्र बोस सरीखे क्रांतिकारियों के चित्र टकटकी लगाकर घंटों देखते थे। उनके मन में विचार उठता कि जब ये अपने अपने पुरुषार्थ से युवकों के आइकन बन सकते हैं तो मैं क्यों नहीं बन सकता? उन्होंने शहजादपुर के सरकारी स्कूल से आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की। इसके बाद खानपुर गांव के एक गुरुकुल में आचार्य प्रद्युम्न व योगाचार्य बलदेवजी से संस्कृत व योग की शिक्षा ली। इसके बाद कुछ करने का संकल्प लेकर उन्होंने अपने परिवार को छोड़ संन्यास ले लिया। योग शिक्षा के दौरान वे हिमालय की यात्रा पर भी गए। प्राचीन पुस्तकों व पांडुलिपियों का अध्ययन करने हरिद्वार आकर कनखल के कृपालु बाग आश्रम में रहने लगे। टीवी से जब उनकी लोकप्रियता शिखर पर पहुंचने लगी तो उन्होंने 1995 में दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की। आचार्य बालकृष्ण के साथ उन्होंने अगले ही वर्ष दिव्य फॉर्मेसी के नाम से आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण शुरू किया। इसके बाद बाबा के दावों का सिलसिला शुरू हो गया। वे कहते हैं कि असाध्य से असाध्य बीमारी वे योग से ठीक कर सकते हैं। उनके दावों का समर्थन करने वाले हजारों है तो कुछ विरोध करने वाले भी हैं। बाबा कठमुल्लावादी भी नहीं हैं। परंपरा को वह ज्ञान का स्त्रोत मानते हैं और उसे आधुनिक ज्ञान से जोड़ने के पक्षधर हैं। इसीलिए उनके गुरूकल में पारंपरिक विषयों से लेकर आधुनिक विषयों : फिजिक्स, केमिस्ट्री और कंप्यूटर आदि की भी शिक्षा दी जाती है। बाबा वैसे तो साधारण जीवन जीते हैं। सिर्फ भगवा वस्त्र धारण करते हैं। हालांकि सफर वह चार्टेड प्लेन और एयरकंडीशंड लंबी महंगी कारों में करते हैं। 

दावे और सच्चाई
आयुर्वेद और योग को मिलाकर बाबा रामदेव दुनिया को स्वस्थ करना चाहते हैं। उनका कहना है कि एक बार यदि कोई दवाओं के चक्कर में पड़ जाता है, तो उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। वे बर्गर को बरबादी का घर और पिज्जा को सेहत पीने वाला कहते हैं। वह सीधे और सरल तरीके से अपनी बात कहते हैं, इसलिए लोगों के जेहन में उनका सम्मान है। आज देश विदेश में उनके लाखों भक्त हैं। इन्हीं लाखों भक्तों के सहारे वे सरकार को शीर्षासन कराने निकले हैं। काले धन की बात चली है, तो अब इस देश की जनता के मन में यह सवाल भी उठ रहा है कि खुद बाबा ने डेढ़ दशकों में कई हजार करोड़ कैसे बना लिए। हालांकि उन्होंने अपनी संपत्ति की घोषणा कर दी है। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि ये करोड़ों रुपये अगर चंदे से आए हैं, तो उसका काला-सफेद सच क्या है। कौन काले व्यापारियों का यह धन है। बाबा को काले धन के खिलाफ अपने आंदोलन को चलाने के साथ इन सवालों का जवाब देना ही पडे़गा।वैसे भी कांग्रेस ने बाबा के कई योगियों,साधुओ पर नजरे बिछा दी है ,बाबा कब तक महिलाओ को सुरक्षा कवच बनाकर योग की आड़ में सत्तासुखासन का खवाब देखेंगे...?