Monday, December 26, 2011

अन्ना ...आगे नयी चुनौती !


रकार ने अन्ना की मांगों को शामिल करने की बजाय राजनीतिक दलों की मांगों का ध्यान रखा है. सरकार अन्ना की मुहिम को कांग्रेस की बजाय पूरी संसदीय व्यवस्था से जोड़ देना चाहती है.....कांग्रेस संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोकपाल के मसले पर पार्टी और सरकार के रुख को स्पष्ट किया. सोनिया गांधी ने लोकपाल पर लंबी लड़ाई लड़ने की बात दोहराते हुए विपक्ष और अन्ना को लोकपाल कानून स्वीकार करने की नसीहत भी दी. उनके लहजे से साफ़ हो गया कि अब सरकार लोकपाल के मसले पर झुकने को तैयार नहीं है और वह अन्ना आंदोलन से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है.
        सोनिया गांधी की बात से सरकार और अन्ना के बीच अब सीधी लड़ाई की संभावना बन गयी है. कांग्रेस के रुख में आये बदलाव की वजह लोकपाल पर सरकार और अन्य विपक्षी दलों के बीच कई मसलों पर सहमति होना है. आम राय बनाने के लिए सरकार लगातार विपक्षी दलों के संपर्क में थी. विपक्षी दलों की कई मांगों को मसौदे में शामिल कर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच असहमति को कम करने की कोशिश की गयी.....लोकपाल के गठन और चयन में 50 फ़ीसदी आरक्षण और सीबीआइ को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर कमोबेश सभी राजनीतिक दल सहमत हैं. सरकार ने जानबूझकर 50 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी, जबकि ऐसा प्रावधान किसी भी संस्था में अभी तक नहीं है. सरकार के इस फ़ैसले से कई विरोधी दल खासकर बसपा की रणनीति गड़बड़ा गयी है. अब बसपा भी लोकपाल का विरोध नहीं कर पायेगी. वहीं दूसरी ओर सीबीआइ के मसले पर सर्वदलीय बैठक में किसी भी राजनीतिक दल ने सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में रखने की बात नहीं कही. सिर्फ़ सीबीआइ की स्वायत्तता का मामला उठाया गया...कोई भी दल नहीं चाहता कि सीबीआइ पूरी तरह स्वतंत्र तरीके से काम करे. दलों की इस भावना को समझते हुए सरकार ने लोकपाल के मसौदे में सीबीआइ के निदेशक की चयन प्रक्रिया को बदलने की बात तो शामिल कर ली, लेकिन इसे लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया. जबकि, टीम अन्ना की मांगों में सीबीआइ को लोकपाल के दायरे शामिल करना प्रमुख है.
इस मसले पर प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा का रुख भी स्पष्ट नहीं है. भले ही भाजपा मौजूदा बिल को कमजोर बता रही हो, लेकिन सीबीआइ के मामले पर वह अपना पत्ता नहीं खोल रही है. पार्टी का कहना है कि इस मसले पर वह सदन में अपनी बात रखेगी. अगर मौजूदा लोकपाल मसौदे पर संसद में सभी दलों की राय एक जैसी रही और यह विधेयक पास हो गया, तो सरकार का पलड़ा भारी हो जायेगा. इससे एक तरह से लोकपाल पर अन्ना भी सिर्फ़ आंदोलन भर बन कर रह जायेंगे.
लोकपाल बिल में संशोधन की जितनी बार अन्ना आवाज उठायेंगे, उसे संसद की सर्वोच्चता से जोड़कर उनकी धार को कुंद कर दिया जायेगा. सरकार जनमानस में यह छवि बनाने की कोशिश करेगी कि अन्ना की कई मांगों को स्वीकार करने के बावजूद वे गैरवाजिब मांग कर रहे हैं और इस तरह इस लड़ाई को संसद बनाम अन्ना कर दिया जायेगा.सरकार ने बड़ी चालाकी से, अन्ना और राजनीतिक दलों की मुख्य मांग प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में कर, दलों के बीच मतभेद को काफ़ी कम कर दिया. एक बार कानून संसद से पास हो गया तो इसका विरोध लंबे समय तक नहीं हो सकता है. लेकिन, अन्ना भी मंङो हुए रणनीतिकार हैं.
                                 अगर 30 दिसंबर से उनका जेल भरो कार्यक्रम सफ़ल हो जाता है, तो बाजी उनके हाथ आ जायेगी. अभी तक के उनके अनशन और आंदोलन को देखकर कहा जा सकता है कि अन्ना लोगों में यह भरोसा पैदा करने में सफ़ल होंगे कि सरकार का लोकपाल कानून कमजोर है और बार-बार के आश्वासन के बावजूद उनकी मांगों को दरकिनार कर दिया गया है. फ़िलहाल विपक्षी दलों के रुख को देखते हुए सरकार का पलड़ा भारी है.
सरकार के रवैये को देखते हुए अन्ना ने पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ़ प्रचार करने की घोषणा की है. जंतर-मंतर पर इसी महीने एक दिन के सांकेतिक अनशन में विपक्षी दलों की मौजूदगी से स्पष्ट होता है कि अन्ना आंदोलन में गैर कांग्रेसी दलों के एकजुट होने की संभावना है. 2जी, कॉमनवेल्थ घोटाले के कारण सरकार की साख वैसे ही निचले स्तर पर पहुंच गयी है. लोगों के बीच यह धारणा है कि कांग्रेस के साथ वही दल हैं, जो भ्रष्ट हैं. ऐसे में कांग्रेस विरोध में प्रचार करने की अन्ना की मुहिम से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है. हिसार उपचुनाव का नतीजा सामने है. अन्ना पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उनका विरोध कांग्रेस से नहीं है, वे सिर्फ़ सख्त लोकपाल कानून चाहते हैं. सरकार ने जो सिटीजन चार्टर विधेयक पेश किया है, उसमें भी कई खामियां हैं. जबकि अन्ना सिटीजन चार्टर को भी लोकपाल के दायरे में रखने की मांग करते हैं. ग्रुप सी और डी कर्मचारियों को सीवीसी के अधीन कर भी अन्ना की अहम मांग को दरकिनार कर दिया गया है.

Wednesday, December 21, 2011

बढ़ चला आंदोलन....

न्ना अभियान में एक नया मोड़ आ गया है, यह इसे निश्चित स्वरूप देने जा रहा है। अभियान आंदोलन की तरफ उन्मुख हो गया है। पिछले रविवार को एक दिवसीय धरने पर अन्ना के मंच पर आठ गैर-कांग्रेसी नेता आए। उनके बोलने से और मंच पर आने से दो अर्थ निकलते हैं, पहला अन्ना समूह अपने लक्ष्य को पाने के लिए संसदीय राजनीति का सहारा लेने जा रहा है। यह अपने आप में अन्ना अभियान के लिए नई बात है। दूसरा विपक्ष और अन्ना समूह में वास्तविक संवाद अब शुरू हुआ है।
              हम जानते हैं कि अन्ना समूह अराजनीतिक है, खुद अन्ना हजारे की छवि एक नैतिक नेतृत्व देने वाले की है। जन साधारण उन्हें आध्यात्मिक भी मानता है, क्योंकि वह कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि लोकहित की भावना से प्रेरित होकर मौजूदा राजनीति के मर्म पर चोट कर रहे हैं। वे राजनीति विरोधी नहीं हैं, लेकिन मौजूदा राजनीति को बदलने का उनके मन में संकल्प दिखता है। यह प्रयास वैसे ही है, जैसे पारस पत्थर लोहे को सोना बनाने के लिए करता है। इस नए बदलाव में विपक्ष को अपना भविष्य दिख रहा है। अन्ना अभियान इसलिए आंदोलन की ओर उन्मुख हो गया है, क्योंकि स्थायी समिति के मसौदे पर अन्ना के बयान ने वह रास्ता खोल दिया है। उन्होंने मसौदा आने पर कहा कि राहुल गांधी के हस्तक्षेप से कमजोर मसौदा लाया गया है। इससे कांग्रेस में खलबली मचनी थी और मची। कांग्रेस नेताओं के जैसे-जैसे बयान आए हैं, उससे यह साफ हो गया है कि अन्ना का तीर सही निशाने पर बैठा। 
                  अन्ना टोली के कई सदस्यों ने इस नए मोड़ से राहत की सांस ली है, वे पहले अपनी सांस अन्ना की चालों पर अटकी हुई महसूस करते थे। चूंकि अन्ना की अनेक चालें मनमौजी आदमी की होती थीं, आशंका जताई जाती थी कि उन्हें महाराष्ट्र के कांगे्रसी नेता प्रभावित कर लेते हैं। अन्ना और कांग्रेस में खुला खेल फर्रूखाबादी छिड़ गया है। इससे यह खतरा कम हो गया है कि कोई कांग्रेसी उन्हें प्रभावित कर सकेगा। अन्ना ने राहुल गांधी को निशाने पर लेकर जो अब तक की सबसे महत्वपूर्ण बात कर दी है, वह यह नहीं है कि लोकपाल का स्वरूप कैसा हो, बल्कि यह है कि इस बहस को उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के पाले से खींचकर कांग्रेस के आंगन में पहुंचा दिया है।बिना कहे अन्ना ने साबित कर दिया कि दरअसल मनमोहन सिंह फैसला नहीं करते हैं, फैसला तो सोनिया गांधी करती हैं और राहुल गांधी उसमें हस्तक्षेप करते हैं! यह स्पष्ट होते ही इसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े हो जाते हैं। अन्ना ने ऎलान कर दिया कि मजबूत लोकपाल नहीं बना, तो पहले विधानसभा चुनाव में और फिर लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के खिलाफ प्रचार की कमान संभालेंगे। चुनावी महाभारत की यह रणभेरी इसी ऎलान से निकल रही है। जिसे कांग्रेस से ज्यादा दूसरा कौन समझ सकता है। 
             इसके दबाव में प्रधानमंत्री ने आनन-फानन में सर्वदलीय बैठक बुलाई, जिसमें उन्होंने कहा कि यह विधेयक आम सहमति से पारित हो और इसमें दलीय राजनीति नहीं होनी चाहिए। मनमोहन सिंह अपनी ओर से यह वादा कर सकते हैं कि वे दलीय राजनीति नहीं करेंगे, लेकिन जब सर्वदलीय बैठक हो रही है, तो वहां संन्यासी नहीं बैठे हैं, वहां नेता बैठे हैं, जिनके सामने दलीय राजनीति से बड़ा कोई मुद्दा है ही नहीं, इसीलिए उस लंबी सर्वदलीय बैठक में आम सहमति नहीं बनी।तो अब रास्ता क्या है? सीधी-सी बात है सरकार अपना चेहरा बचाने के लिए संसद के इसी शीतकालीन सत्र में विधेयक लाकर कह सकती है कि हमने अपना वादा पूरा किया। सरकार चाहे तो 22 दिसम्बर तक इस विधेयक को पारित करवाकर जनता की निगाह में अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहेगी। 
              अब सरकार जिस तरह का विधेयक लाएगी, उसके कुछ संकेत मसौदे में हैं और कुछ बातचीत में उभरे हैं, सीबीआई को सरकार अपने नियंत्रण मे रखना चाहेगी। मुझे याद है और यह बहस पुरानी है और जब यह छिड़ी थी, तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था, 'केन्द्र सरकार अगर सीबीआई को अपने अघिकार क्षेत्र से बाहर कर देती है, तो शासन का कोई मजबूत उपकरण उसके पाeस्त्रiह्लश्riaद्य ह्यpeष्iaद्यस बचेगा नहीं।' यही सोच कांग्रेस की और सरकार में बैठे नेताओं की है। कोई दूसरी पार्टी सत्ता में होती, तो वह भी सीबीआई को नियंत्रण से बाहर नहीं होने देती।  
   लोकपाल के मसौदे पर सीबीआई सहित बहुत सारे बिन्दुओं पर गंभीर असहमति है और इसकी संभावना बहुत कम है कि मनमोहन सरकार इतनी झुक जाए कि विपक्ष और अन्ना हजारे की सारी बातों को मान ले। इसलिए परिणाम यह होगा कि  लोकपाल से ही बहुत दिनों बाद इस देश में राष्ट्रीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद का माहौल पैदा होगा। यूपीए विरोधी एकता को किसी भी नजरिये से आप देखें, कहा जा सकता है कि यह चुनावी एकता होगी और यह एकता यूपीए का बाजा बजा देगी ! लोकपाल पर अन्ना ने घोषणा की है कि उसके मनमाफिक विधेयक पारित नहीं हुआ, तो 27 दिसम्बर से पुराने गवालिया टैंक मैदान पर अन्ना आमरण अनशन पर बैठेंगे। वह अब आजाद मैदान कहलाता है। उसी मैदान से 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने दो नारे दिए थे, करेंगे या मरेंगे और अंग्रेजों भारत छोड़ो। उस नारे को याद दिलाता हुआ अन्ना का अनशन नई राजनीति की घोषणा कर सकता है। लोकपाल का विषय ही ऎसा है, जिस पर आम सहमति कठिन है और इस समय तो असंभव दिखती है। चनुावी राजनीति ने लोकपाल को अब व्यापक राजनीति का हिस्सा बना दिया है और अब लोकपाल से आगे अन्ना हजारे और विपक्ष दो मुद्दे उछालेंगे, पहला चुनाव सुधार का और दूसरा व्यवस्था परिवर्तन का। इसी अर्थ में अन्ना का आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन का स्वरूप ग्रहण कर सकता है। 

...अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर की तरह बनें

तीन लड़कियों ने एक साथ आत्महत्या की', 'दो युवा भाइयों की मौत से घर उजड़ा', आए दिन अखबारों के ये शीर्षक सुर्खियों में रहते हैं। ये सुर्खियां हमारे भीतर आकस्मिक भय और घबराहट उत्पन्न करती हैं। मनोवैज्ञानिक लक्षणों के चलते आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं जो चेतावनीसूचक है। वो दिन हवा हुए, जब माता-पिता बच्चों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करते थे। बच्चे मटरगश्ती करते रहते थे, पतंग उड़ाने में मस्त रहते थे, पड़ोसियों की नकल उतारते रहते थे और अपने आप में मग्न रहा करते थे। जिन्दगी का सामान्य आनन्द व  अनुभूतियां अब सिर्फ प्रेमचंद के उपन्यासों और कॉल्विन या डेनिस के कार्टून चरित्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं। यह कष्टकारक है। आज के माता-पिताओं की ख्वाहिश होती है कि उनके बच्चे अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर और सलमान खान की तरह बनें।
              शताब्दी के बदलने के साथ ही काफी कुछ बदला है। ज्यादा जागरूकता उत्पन्न हुई है, वैश्विक बाजार खुला है और मीडिया के प्रचार से लोगों की जरूरतों में इजाफा हुआ है तथा व्यक्तिगत रूप से लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं। हर कोई भाग-दौड़ और जल्दी में है, तेज और दु्रतगति से आर्थिक एवं सामाजिक सफलता की सीढियां मापने की कोशिश में है। अंधी दौड़ और सफलता की होड़ का यह पुलिन्दा सुव्यवस्थित ढंग से हावी है और इसे लाखों तरह के दबाव के बोझ के रूप में निरूपित किया जा सकता है। यह परिदृश्य केवल प्रौढ़ लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी चपेट में किशोर और बच्चे तक आ रहे हैं। 
            दबाव, थकान या तनाव को परिभाषित करना मुश्किल है लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह हमारे शरीर और मस्तिष्क पर असर डालता है। बचपन के दबाव के कारण विविध प्रकार के होते हैं। ऎसे नाजुक समय में, जबकि बच्चे को अपने माता-पिता का भरपूर समय और कोमल अपनत्व मिलना चाहिए, वह आया या क्रेच की देखरेख छोड़ दिया जाता है। माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए कोई समय नहीं होता है और वे इस अपराध बोध से छुटकारा पाने के लिए बच्चे की गैरजरूरी मांगों को पूरा कर देते हैं जबकि इस तरह की मांग को प्यार से फुसलाकर दूसरा रूप दिया जा सकता है।
      दूसरी ओर, माता-पिता अपने बच्चे से ज्यादा उम्मीद कर बैठते हैं। वे बच्चे में उसका व्यक्तित्व नहीं, बल्कि उसमें खुद का विस्तारित रूप देखते हैं। अभिजात लोगों के साथ रहने से दबाव का स्तर बढ़ता है। हम जब अभिजात दबाव के के बारे में विचार करते हैं तो यह अभिजातीय दबाव न केवल क्लासरूम से पड़ता है बल्कि टीवी पर दिखाए जाने वाले अवास्तविक और कभी-कभी बेवकूफी भरे विज्ञापन देखकर भी उत्पन्न होता है। एक सांस्कृतिक संभ्रम की स्थिति शहरों में फैल रही है जहां माता-पिता की अपेक्षा होती है कि उनके बच्चे पश्चिम के सांस्कृतिक वातावरण और पूर्व के नैतिक मूल्यों से ओतप्रोत हों। निस्संदेह, दबाव जीवन का एक अपरिहार्य पहलू है और वास्तव में इसका कुछ हिस्सा प्रेरणा प्रदान करता है लेकिन ज्यादा स्तर के दबाव से 'आउटपुट' पर असर पड़ता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का कारण बनता है। चिकित्सकों का वर्ग दबाव को जीवनशैली से जुड़ी बीमारी मानता है। इसके अलावा बच्चों में मनोवैज्ञानिक जनित समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। इनमें उदासी, अवसाद, पलायनवाद, हाइपरवेंटीलेशन, सिरदर्द आदि से जुड़ी बीमारियां हैं और यह आत्महत्या की तरफ झुकाव को बढ़ाने वाला होता है।  
'शिक्षक-शिक्षण' सम्बन्ध भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, अध्यापक इंस्ट्रक्टर (उपदेशक) हो गए हैं और वे पढ़ाने के बजाए कोचिंग में रूचि ले रहे हैं। इसमें युवाओं को ज्ञान देना और उनमें विश्वास  उत्प्रेरण के स्थान पर व्यक्तित्व विकास की शिक्षा देना भी शामिल है। गुरू की परिभाषा की समुचित रूप में इस प्रकार व्याख्या की गई है-'गु' यानी कि अज्ञानता और 'रू' यानी अज्ञानता को नष्ट करने वाला। बहुत ही अल्प अवधि में कोचिंग इंस्टीट्यूट्स और व्यापारिक शैक्षणिक संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ी है। शिक्षा के अधिकार के जमाने में इन्हें अपना रवैया बदलने और बदलाव लाने की जरूरत है। शिक्षा, प्रवीणता और दक्षता देने के लिए उन्हें अपने उद्देश्य को प्राथमिकता पर रखना होगा। इससे इन संस्थाओं के संचालक सिर्फ मालामाल होने की अपेक्षा स्वास्थ्य व समृद्धता के भी हितकारी बनेंगे। 
   व्यक्ति के जीवन में किशोरवय की अवधि सर्वाधिक दबाव का काल होती है। वे तरूणाई के दौर से गुजर रहे होते हैं, दूसरे की उम्मीदों की चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं और उन्हें जो नया लगता है, उसकी नकल कर रहे होते हैं। करियर सम्बन्धी कोई भी निर्णय उन पर थोपना नहीं चाहिए, बल्कि उनकी योग्यता और इच्छा को भी ध्यान में रखना चाहिए। उन्हें यह अहसास कराना जाना चाहिए कि उन्हें प्यार किया जाता है और वे समाज के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। इससे उनका दबाव कम हो सकता है। उनकी छोटी-मोटी अवज्ञाओं को नजरअंदाज करना चाहिए और उन्हें महसूस कराना चाहिए कि वे उच्च क्षमताओं से सम्पन्न हैं।  छोटी उपलब्धियों को भी भरपूर तरजीह दी जानी चाहिए, विफलता पर प्रोत्साहक रवैया अपनाना चाहिए। प्रोत्साहक गतिविधियों से उनमें आनन्द का संचार होता है। दबाव कम करने की दिशा में यह प्रभावकारी उपाय है। माता-पिता को सबसे पहले खुद का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। 
 मुख्य बात यह समझने योग्य है कि बच्चा एक व्यक्तिगत इकाई है और उसके अपने अधिकार हैं। उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि वे महत्वपूर्ण हैं। उन्हें सुरक्षित, मजबूत, घरेलू और विश्वसनीय वातावरण व घर उपलब्ध कराना चाहिए।   

Friday, December 9, 2011

इलाज से लेकर पोस्टमार्टम तक...!!!

डेढ़ दशक से ज्यादा की पत्रकारिता में मैंने जितना देखा,जितना लिखा उस लिहाज से लोग मुझे "नेगेटिव" पत्रकार कहने लगे ! हो सकता है मेरी सोच आज के जमाने की सोच पर फिट नही बैठती हो मगर मै संतुष्ट हूँ की मैंने जो देखा उसे ही जनता के पेशे-नजर किया ! पिछले एक महीने से छत्तीसगढ़ की ऊर्जा-नगरी कोरबा में हूँ ! जिस शहर ने मुझे नाम दिया,पहचान दी...जिस शहर को मैंने आँखों के सामने महानगरीय अमलीजामा पहनते देखा उसे ना चाहते हुए भी ९ नवम्बर से छोड़े आया हूँ  ! नए साथियों के साथ नए शहर में जनता की बरसो पुरानी जरूरतों की हकीकत जानने की कोशिशे जारी है ! एक महीने में जो दिखा उस लिहाज से कहूँ तो बात फिर से मेरी नेगेटिव सोच वाली आ जाएगी.मगर हकीकत है की छत्तीसगढ़ जैसे विश्वसनीय प्रदेश में कोरबा जिले के लोग जिन छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मोहताज है वो इस प्रदेश के सियासतदारो के असली चेहरों को बेनकाब करती  है ! इस पोस्ट पर मै केवल जिला अस्पताल के बारे में थोडा बहुत लिखूंगा जो सरकार की स्वास्थय निति पर सवाल खड़े करने के लए काफी होगा.....!!! 
                     कोरबा के १०० बिस्तर वाले जिला चिकित्सालय के कई नाम है,कोई हंड्रेड बेड तो कोई इंदिरा गाँधी अस्पताल के नाम से जानता है,पुकारता है ! अस्पताल सरकारी है लिहाजा रसूखदारों को "१०० बेड" से ज्यादा उम्मीदे नही होती...जिन गरीबो ने इंदिरा गाँधी जिला चिकित्सालय की चौखट को मंदिर समझकर भीतर प्रवेश किया उन्हें वो तारीख अब भुलाये नही भूलती.....किसी की माँ तो किसी बहेन ने भाई खो दिया ! कोई अपने पति को लेकर जिला अस्पताल  आई तो आँखों में जिन्दगी बच जाने की उम्मीदे थी मगर मांग से सिंदूर का रंग मिटने में वक्त नही लगा....जिला चिकित्सालय में कई ऐसे बाप भी आये जिन्होंने वक्त से पहले बेटे की अर्थी को कंधा दिया.....मामूली घाव से लेकर गंभीर बीमारी तक में बरती जा रही लापरवाही ने कई आशियानों में मातम का परचा भेज दिया,मगर जिम्मेदार चिकित्सक हमेशा बचते रहे ! मै जिस जिला अस्पताल की सरकारी वयवस्था पर वक्त जाया कर रहा हूँ उसे "आई.एस.ओ."का दर्जा हासिल है ! आप समझ सकते है  ऊर्जा नगरी का जिला अस्पताल सरकारी रिकार्ड में कितनी गुणवत्ता युक्त है.....हकीकत मैंने अपने साथियों की नजरों के अलावा खुद भी एक दिन जाकर देखी ! हालत मेरे मुताबिक़ काफी बुरे है,जो भोग रहे है या फिर भुगत चुके है वो मेरे से सहमत होंगे....१०० बिस्तरों वाले अस्पताल के अधिकाँश बिस्तर खाली पड़े रहते है,सरकारी दवाइयां या तो झोला छाप डाक्टरों को बेच दी जाती है या फिर सरकारी अस्पताल के डॉक्टर साहेब के निजी क्लिनिक में पहुंचकर गरीबो की सेहत का ख्याल रखती है !
                                         इलाज से लेकर पोस्टमार्टम तक अव्यवस्था .....सांस चलने से लेकर उखड़ जाने तक इंसान की फजीहत....सरकारी तनख्वाह पर खुद के क्लीनिको में इलाज के बहाने रुपये बटोरने का खेल.....जिंदगी बचाने की बजाय रिफर का परचा लिखने वाले डाक्टर खुश है,मातम तो उन घरों में पसरा है जहां उम्मीदों ने आते ही दम तोड़ दिया.....मगर हकीकत से सरकार के मंत्री या जिला प्रशासन के लोग वास्ता नही रखना चाहते तभी तो "आई.एस.ओ."का दर्जा हासिल जिला अस्पताल की खामियों को ठीक करने की बजाय स्वास्थय मंत्री अमर अग्रवाल ने ३० नवम्बर को मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों के समक्ष जिन स्वास्थय सुविधावो का सरकारी पठन-पाठ किया वो गरीबो का मजाक उड़ा गई.....इतना ही नही जिले को ५ संजीवनी एक्स्प्रेस दे गए ताकि गरीबो का खून चूसने वाले डॉक्टर और फल-फुल सके......मेरे चैनल में काम करने वाले सहयोगी ने संजीवनी की निकली हवा की पोल तीसरे ही दिन खोल दी.....जिला अस्पताल के एक डाक्टर साहेब ने संजीवनी की सुविधावो को अपने निजी क्लिनिक के लिए लगा रखा था....सरकार की संवेदन शीलता पर सवाल खड़े हुए तो कलेक्टर साहेब की बंद आँखे खुल गई....उन्होंने जांच टीम और ना जाने क्या क्या सरकारी भाषा में कह दिया ....! साहेब को लगता है पहली बार लगा सरकारी सुविधावो का दुरूपयोग होने की भनक लगी...एसा मै कहूँगा तो गलत होगा क्यूंकि साहेब को इस बार भी गरीबो के स्वास्थय का नही सरकार की सरकारी संजीवनी का ख्याल था तभी तो जांच टीम और ना जाने क्या...क्या...?
                                       आदिवासी बाहुल्य कोरबा जिले में स्वास्थय सुविधावो का अब तो भगवान् भी मालिक बनने से इनकार कर दे मगर कई चिकित्सक जिन्हें गरीब अब राक्षस और लुटेरा कहने से नही चुकते वो मसीहा बनने का दावा करते घूम रहे है....!!!! न जाने क्या होगा उन आदिवासियों का जो जिन्दगी बच जाने की आस में कभी घर बेचते है तो कभी खेत के टुकड़े को बेचकर खून के रिश्तो को सांस देने की कोशिश करते है......!!!!!! 

Sunday, November 20, 2011

‘बिना दांत के शेर’

भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष के रूप में न्यायविद मार्कंडेय काटजू का संभवत: पहला बयान भारतीय मीडिया और समूचे मीडिया-कर्म के लिए सीधी चुनौती है। इसके साथ ही यह आत्म-निरीक्षण और आत्म-विश्लेषण का कारण भी है। भारतीय प्रेस परिषद को ‘बिना दांत के शेर’ वाली भूमिका से आगे ले जाने के लिए यह वक्तव्य प्रस्थान बिंदु भी हो सकता है। जस्टिस काटजू ने कुरदने वाले तथ्य कहे हैं। लेकिन उनका वक्तव्य हकीकत का भी बयान है। प्रेस परिषद देश की संसद द्वारा गठित भारतीय प्रेस की नियामक संस्था रही है। प्रेस यानी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं से आगे अब भारतीय मीडिया की दुनिया वैश्विक हो गयी है। रेडियो, टेलीविजन और न्यू मीडिया, सोशल मीडिया जैसे प्रभावी माध्यमों ने पूरे भारतीय मीडिया परिदृश्य को बदलकर रख दिया है।
जस्टिस काटजू जब यह कहते हैं, ‘देश में, देश के बुद्धिजीवियों, सरकार, प्राइवेट सेक्टर सभी में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि मीडिया का एक खास वर्ग अपने कार्य-व्यवहार में अत्यंत गैरजिम्मेदार हो गया है। वह गलत सूचनाएं देने, गलत रिपोर्टिग करने के साथ ही वस्तुस्थिति को सनसनी के रूप में पेश करता है’, तो यह बात बहुत से लोगों को काफी तथ्यपरक लगती है। साथ ही जस्टिस काटजू यह भी जोड़ देते हैं कि ‘मीडिया के लोगों के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। मुझे नहीं लगता कि उन्हें आर्थिक नीतियों, राजनीतिक सिद्धांतों, साहित्य और दर्शन शास्त्र की जानकारी होती है।’ ज्यादा विवाद उनके वक्तव्य के इसी अंश को लेकर है।
जस्टिस काटजू की टिप्पणियों को लेकर उठा विवाद उनके इस ताजा बयान से चरम पर पहुंचना स्वाभाविक है, जिसमें उन्होंने कहा, ‘मीडिया अपने अंदर भी झांक कर देखे। मीडिया लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने और समाज की बुराइयों से परिचित कराने की अपनी भूमिका से विमुख हो चुका है। उसे अपना आत्म-मूल्यांकन करना चाहिए।’ इस पर एडीटर्स गिल्ड के महासचिव की प्रतिक्रिया भी काबिले गौर है, ‘काटजू उन लोगों के प्रति बहुत ही अपमानजनक रवैया अपना रहे हैं, जिनके साथ उन्हें अगले तीन वर्षों तक काम करना है।’ यह इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में प्रेस परिषद की भूमिका और कार्य कठिनाइयों से भरा हो सकता है।
काटजू का बयान सुर्खियों में है और उनके बयान को इंटरनेट सोशल मीडिया पर काफी समर्थन मिल रहा है। ऐसी ही यह एक टिप्पणी मीडिया के लिए सीधी चुनौती है, ‘मीडिया का बरताव जर्मनी के तानाशाह हिटलर की तरह है। वह बिना किसी पुख्ता जानकारी के कुछ भी प्रसारित कर देता है।’ समाचार चैनलों की स्व-नियामक संस्था नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के प्रमुख न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने प्रेस परिषद को ‘भावहीन और अपने मकसद में नाकामयाब’ करार देते हुए इसे बंद या भंग कर देने का सुझाव दिया है, जिसके दूरगामी भाव स्पष्ट हैं। इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी ने तो इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि मीडिया संबंधी काटजू की टिप्पणी ‘गहरे पूर्वाग्रह से प्रेरित है। काटजू का लोकतंत्र के चौथे खंभे के प्रति यह पूर्वाग्रह साफ झलकता है।’
केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री ने इस सिलसिले में बस इतना ही कहा है कि ‘सरकार की प्रेस की आजादी पर किसी तरह की रोक लगाने की कोई योजना नहीं है। सरकार मीडिया के लिए स्व-नियंत्रण व्यवस्था चाहती है, ताकि वह अधिक संवेदनशीलता से काम करे और मीडिया ट्रायल तथा व्यक्ति विशेष की निंदा से परहेज करे।’ पर प्रेस परिषद की भूमिका और भविष्य के बारे में सरकार का मत साफ न होना चिंता का विषय है।
मीडिया का एक वर्ग जस्टिस काटजू की टिप्पणियों को नकारात्मक, तो दूसरा, ‘जल्दबाजी में किया गया आकलन’ मानकर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। एडीटर्स गिल्ड इन टिप्पणियों को ‘पत्रकारों पर की गयी तथ्यहीन एकतरफा और पूर्वाग्रह से ग्रस्त करार’ दिया है, जो गंभीर विचार व बहस का मुद्दा होना चाहिए। प्रेस परिषद के अध्यक्ष की दृष्टि में मीडिया देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने का काम करता है, एडीटर्स गिल्ड इसे निराधार मानते हुए कहता है, ‘मीडिया ने देश को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।’ एडीटर्स गिल्ड की यह दृष्टि तार्किक है कि वस्तुत: ‘प्रेस की स्वतंत्रता सत्ता में बैठे लोगों के विरुद्ध जनता की शक्ति’ है। परंतु प्रेस परिषद को और अधिकार संपन्न बनाये जाने पर खुद मीडिया की पुरानी मांग को गिल्ड ने ‘सरासर गलत-अनावश्यक’ और ‘मीडिया में भय पैदा करने’ का प्रयास मानकर समूची बहस को एक नया मोड़ दे दिया है। ‘बिना दांत का शेर’ एक बार फिर वैचारिक बहस के कठघरे में है।
इसके आगे भी प्रश्न अनेक हैं। साख और सरोकार पत्रकारिता की मूल थाती रही हैं और आज भी साख की पूंजी के बूते ही पत्रकारिता समाज व भारत जैसे लोकतंत्र की धुरी है। पत्रकारिता में कभी कुछ ‘पेड’ नहीं था, अब सब कुछ ‘पेड’ है। तथ्यों की सत्यता, भाषा के मानकों और दूसरे सवालों-सरोकारों से अलग ‘सबसे आगे’ रहने की होड़ ने उसकी साख को कठघरे में खड़ा किया है। उत्तर प्रदेश से एक उदाहरण लें। 1970-80 के दशक में एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने लगातार एक वरिष्ठ महिला आईएएस अधिकारी के बारे में उनके एक से अधिक पति होने की खबरें छापीं। जांच के बाद सारे तथ्य झूठ निकले। पत्र को अपने मुखपृष्ठ पर ‘सेकेंड लीड’ छापकर माफी मांगनी पड़ी। 1990 के दशक में ही वाराणसी का चर्चित संवासिनी कांड मीडिया द्वारा सृजित कांड साबित हुआ। इस कांड ने कितनों के घर बरबाद किये, कितनों को जेल भेजा और बाद में सीबीआई की जांच में सारा मामला ही गलत पाया गया। जिनकी, जो क्षति हुई, क्या उसकी भरपाई हुई?
इसी प्रकार दिल्ली के प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्र में एक सांसद के बारे में खबर छपी – ‘बिहार एमपी डज नॉट नो हाऊ मेनी स्पाउसेस ही हैज’ यानी ‘बिहार के सांसद को पता नहीं कि उनकी कितनी पत्नियां हैं।’ बाद में इस खबर के लिए प्रथम पृष्ठ पर माफी मांगी गयी और साथ ही उनके परिवार के लोगों, मित्रों तथा समर्थकों को हुए कष्ट के प्रति खेद व्यक्त किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने आरुषि मर्डर केस में भारतीय मीडिया को ‘सेंसेशनलिस्ट मीडिया’ करार दिया था।
जस्टिस काटजू ने जो सवाल उठाये हैं, उनका जवाब सिर्फ बयान से नहीं, बल्कि आत्म-निरीक्षण के बाद अपनी कार्य-प्रणाली को पारदर्शी बनाकर देना होगा। मीडिया जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा है। इसलिए कठोर समीक्षा और अग्निपरीक्षा के दौर से गुजरने के लिए खुद को तैयार करना ही होगा। इससे परहेज न तो किया जा सकता है, न किया जाना चाहिए।

Thursday, October 27, 2011

चाय पी लीजिये बाबूजी एमकॉम की छात्रा ने बनाई है...

ये हकीकत बिलकुल भी नई नही है,ऐसे कई जरूरतमंद है जिनकी परवरिश खुद की मेहनत  के दम पर होती है ! मुझे लक्ष्मी की हकीकत और उसके संघर्ष की दास्ताँ काफी प्रेरणा  देती है ! झारखण्ड की राजधानी रांची में एक इसी जिन्दगी भी है जो मेहनत के दम पर ऊँची उड़ान का ख़वाब संजोये हुए है ! ये सच मुझे फेसबुक के जरिये पता चला जिसे मै अपनी पोस्ट पर लगाकर हमेशा इस तरह की मेहनतकश शख्सियत   से सीख लेता रहूँ,इसी उम्मीद के साथ...
  परिस्थितियां कुछ भी करने को विवश कर सकती हैं। और जब यह अच्छे के लिए किया जाता है तो लोग उसकी दाद देने लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही राजधानी रांची में लक्ष्मी नाम की लड़की आजकल कर रही है।गरीबी का शिकार लक्ष्मी की छोटी-छोटी आंखों में बड़े-बड़े सपने हैं। वो उन्हें टूटने नहीं देना चाहती। लक्ष्मी रांची के कोकर इलाके में चाय बेचती है। रांची वीमेंस कॉलेज में वो अभी एमकॉम पढ़ रही है। जींस और टॉप में चाय बेचते लोग उसे देखते रह जाते हैं।एक ओर जहां ग्राहकों के लिए वो लड़की एक आदर्श बन चुकी है वहीँ अपने परिवार के लिए लक्ष्मी। चाय बेच कर वो अपनी पढा़ई का खर्च तो निकाल ही ले रही है साथ ही परिवार का भरण पोषण भी कर रही है।चाय ही नहीं, बल्कि आदर की मिठास भी मिलती है पढा़ई के प्रति लक्ष्मी की यह लगन ही है कि उसने चाय बेच कर अपनी पढा़ई पूरी करने की ठान ली। एक झोपड़ीनुमा दुकान में तीन रुपये में गरमा-गरम चाय पीने बड़ी संख्या में लोग आते हैं। एक कारण यह भी कि यहां चाय ही नहीं मिलती बल्कि आदर की मिठास के साथ लगन भरा व्यवहार होता है।लक्ष्मी के पिता रामप्रवेश तांती एक प्राइवेट संस्थान में काम करते थे, लेकिन अब रिटायर हो चुके हैं। ऐसे में लगा कि अब लक्ष्मी की पढ़ाई बंद हो जायेगी, लेकिन लक्ष्मी ने ही आगे बढ़ कर कहा कि हम कुछ ऐसा करें जिसमे पूंजी कम लगे और परिवार के लिए आय भी हो जाय। फिर क्या था लक्ष्मी ने अपने पिता के साथ खोल ली एक छोटी सी चाय दुकान। हालांकि, एमकॉम में पढ़ रही बेटी को चाय दुकान पर बिठाना लक्ष्मी के पिता को अच्छा नहीं लगता। लेकिन मुफलिसी की मार और बेटी के हायर एजुकेशन का सपना टूट न जाय इसलिए लक्ष्मी खुद अपने निर्णय से चाय दुकान को चलाने लगी। पिता की नौकरी छूटे 15 साल हो गए। कमाऊ बड़ा भाई भी पिछले साल अकाल के गाल में समा गया। बचपन से पढा़ई में हमेशा अव्वल रहने वाली लक्ष्मी अपने परिवार वालों के सपनों को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहती। लक्ष्मी एमकॉम करने के बाद बैंक में पीओ बनना चाहती है। खाली समय में दुकान पर जब ग्राहक नहीं होते तो लक्ष्मी की पढ़ाई चलती रहती है। लक्ष्मी को कभी चाय दुकान पर ग्राहकों से कोई परेशानी नहीं होती। सभी इसके जज्बे को सलाम करते हैं।

Tuesday, October 25, 2011

...जग जीत गए "जगजीत"


न दिनों समझ आ रहा है कि किसी के चले जाने से एक युग का अंत कैसे हो जाता है। अभी-अभी तो स्टीव जाब्स गये थे, जगजीत भी नहीं रुके। एक ने तकनीक की दुनिया बदल डाली, तो दूसरे ने गजलों की परिभाषा। हमने तो गजलों को जगजीत सिंह की मखमली आवाज से ही समझा। जब भी उन्हें सुना, पूरा सुना। उन्हीं की गायी गजलों ने प्रेम के मायने समझाये। विरह की बेला में साथ दिया। मोहब्बत की चाहत से लेकर जुदाई के दर्द तक के हमराज बने। उन्हीं की आवाज की अंगुलियां पकड़ गजल की दुनिया में आये हम और आज वही हाथ हमसे छूट गया।
जगजीत की आवाज सुख की खुशी के साथ-साथ दुःख की उदासी में भी उतनी ही प्रिय लगती। मामला प्रियतम से विरह का हो या फिर मिलन का। गजलों के इस सम्राट को सुन भावनाएं हमेशा शीर्ष पर चली जातीं। गजल को आम लोगों के बीच लोकप्रिय कर जगजीत ने जग को तो जीत लिया लेकिन अब पता नहीं उनके जाने के बाद कौन कागज की कश्ती गुनगुनाएगा। अब तो बस यही याद आ रहा, ‘एक आह भरी होगी, हमने न सुनी होगी, जाते-जाते तुमने आवाज तो दी होगी…’
करीब ६ साल पहले जगजीत सिंह साहेब का बिलासपुर आना हुआ था।एक कांग्रेस नेता कहूँ या फिर बिल्डर या समाजसेवी,जो भी हो उन साहेब की होटल के शुभारम्भ मौके पर ग़ज़ल सम्राट शहर आये ! मैंने पहली बार उनको करीब से देखा और सूना ! काफी देर तक आँखों को यकीं नही हो रहा था की जो दिखाई दे रहा है वो हकीकत है ! वजह भी थी मुझे कभी भी ग़ज़ल सुनने का शौक नही था,मेरे परिचित या ये कहूँ की मेरे बड़े भाई कमल दुबे जी की संगत  ने  ग़ज़ल को सुनने और समझने की तकत दी ! मै उस रात ग़ज़ल ही सुनता रहा,कब रात भोर में बदल गई पता ही नही चला ! जगजीत सिंह  नही है,लेकिन कुछ यादे,कुछ बाते है जो हमेशा मुझे याद रहेंगी ! मुझे अच्छे से याद है एक बार मै कमल भैया के ऑफिस में बैठा था,रात की बैठकी थी सो लगभग सभी लोग मूड में थे ! बात बात में जगजीत सिंह की बात निकल आई,कमल जी ने कहा वो जगजीत फेंस क्लब के पुराने मेम्बर है ! मुझे उनकी बाते केवल लफ़ासी से ज्यदा नही लग रही थी ! एक मित्र ने हिलते डुलते कह दिया अरे यार - दुबे जी,इतना ही सच बोल रहे हो क्यूँ नही जगजीत साहेब से बात करवा देते ! बड़े ही सहज तरीके से कमल जी ने अपना मोबाईल फ़ोन उठाया,कुछ नामो की गिनती की और ये रहा जगजीत जी का नम्बर कह कर डायल कर दिया ! कुछ ही सेकेण्ड में उधर से एक महिला की हेलो कहने की आवाज,फिर दुबे जी का अपना पूरा परिचय देना सब कुछ नया सा था ! महिल ने जवाब दिया आप १० मिनिट बाद लगाइए वो बाथरूम में है ! फ़ोन काटकर कमल जी ने कहा ये उनकी पत्नी यानी चित्र सिंह थी...! मै दुबे जी को बिना पलक झपकाए देखता रहा ! ठीक १२ वें मिनट पर कमल भैया ने फिर उसी नंबर पर रीडायल किया और उधर से इस बार आई आवाज जगजीत सिंह की थी ! उन्होंने कम समय में अपनी उरानी बातो को विस्तार से बताया और ये कहते हुए मेरा परिचय मोबाइल पर करवाया की मै छत्तीसगढ़ के एक बहुत बड़े अखबार में काम करता हूँ,जबकि मै उस वक्त अम्बिकावानी नाम के एक दैनिक समाचार पत्र में लिखता था ! खैर झूठे परिचय के दम पर मैंने करीब ९ मिनट तक जगजीत सिंह से मोबाइल पर हमरदीफ़ गजलो के बारे में बात की ! फ़ोन काटने के बाद मै दुबेजी का ऐसा कायल हुआ की आज तलक उनकी हर बात को उतनी ही गंम्भीरता से लेता हूँ जितने हलके तरीके से मैंने जगजीत सिंह से बात करवाने वाली बात को लिया था ! 
  मैंने  न सिर्फ उनसे बातें की है  बल्कि उन्हें सामने बैठकर  पूरा सुना भी है ! उनको लाइव सुनने की याद अब तक जीवंत है। हां, एक बात का अफसोस रह गया। उन्होंने कहा था, मौका मिलेगा तो फिर छत्तीसगढ़ आऊंगा । हम सबकी यह तमन्ना अधूरी छोड़ ‘चिट्ठी न कोई संदेश … जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गये…’! खैर जग जीत कर "जगजीत" तो चले गये मगर उनकी यादे,वो मखमली आवाज हमेशा कानो में मिठास घोलती रहेगी ! 

Friday, September 23, 2011

जन्म दिन पर "संजीवनी" मिली...

मर भईया के ४९ वें जन्म दिन{२२सितम्बर}पर जिले को "संजीवनी" मिली...अमर भईया बिलासपुर विधानसभा से तीसरी बार विधायक है और फिलहाल सरकार में स्वास्थ्य के अलावा आबकारी विभाग के मंत्री है...प्रदेश में मंत्री जी को कौन किस नाम से पुकारता है मुझे नही मालुम लेकिन बिलासपुर में १५ साल के किशोर से लेकर ८० साल का बुजुर्ग भी उन्हें अमर भईया ही कहता है...गुरूवार को भईया का जन्म दिन था,पूरे शहर में निमंत्रण कार्ड बटा...व्यापार विहार के त्रिवेणी सभागार में सरकारी आयोजन के बीच भईया के जन्म दिन का केक कटा...जो मंत्री जी को करीब से जानते है वो खास मौके पर पूरे समय मुस्कुराते रहे जैसे घर में लड़की की बारात आई हो...सबसे दिलचस्प बात जो बिन बुलाये मेहमान थे वो जान पहचान वालो से ज्यादा खिल-खिला रहे थे ताकि किसी को बिन इनविटेशन वहां पहुँचने का आभास न हो सके ...खैर जन्मदिन के बहाने मंत्री जी ने सरकार की एक महत्वपूर्ण योजना की शुरुवात बिलासपुर जिले में की जो लोगो की जान बचाने के लिए १०८ नंबर डायल करते ही मौके के लिए रवाना हो जाएगी...
                            "संजीवनी एक्सप्रेस " के रूप में मिली करोडो की सौगात जिले की जर्जर सडको पर रेंगने के लिए तैयार है...जिले को १६ संजीवनी एक्सप्रेस मिली है जो अलग अलग इलाको में दुर्घटना की खबर मिलते ही पहुँच जायेगी...सरकार की महत्वपूर्ण योजना को जन्म दिन के बहाने जिले में लागू करके मंत्री जी ने एक ओर जहां ये बताने की कोशिश की कि सरकार चिकित्सा सुविधा के प्रति  बेहद गंभीर है वहीँ कांग्रेस के नेताओं को बुलाकर राजनेतिक गलियारों में नई बहस और चर्चा के लिए माहोल खड़ा कर दिया है....एक ओर अमर अग्रवाल यानी भईया ने सरकार की उन योजनाओं का पूरा लेखा-जोखा मंच के जरिये पेश कर दिया जो स्वास्थ्य के लिए प्रदेश में चलाई जा रही है....मंच पर सत्ता पक्ष के एक सांसद,एक मंत्री,एक पूर्व मंत्री,एक विधायक समेत कांग्रेस के विधायक धर्मजीत सिंह,महापौर वाणी राव समेत कई राजनेतिक लोग बैठे रहे...सरकार के पक्ष में पार्टी के मंत्री,सांसद और बाकी नेता खूब बोले,जो सामने थे वो भी भईया के ही लोग थे सो तालियों की गडगडाहट लगातार सुनाई देती रही...हाँ विपक्ष के विधायक ने मिले मौके को हाथ से जाने देने का अवसर नही छोड़ा...संजीवनी एक्सप्रेस के रूप में मिली सौगात की पहले तारीफ़ की फिर जनता के मुद्दे पर आ गए...लोरमी के विधायक धर्मजीत सिंह ने जिले में सडको की हालत पर इतना कुछ कह दिया की अमर भईया को कहना पड़ गया आने वाले समय में बिलासपुर विधानसभा से चाहें तो किस्मत आजमा सकते है...खुली चुनौती एक ऐसे मंच से जिसे सरकारी योजना के शुभारम्भ के लिए जन्म दिन के बहाने सजाया गया था....हाँ धर्मजीत सिंह की शहर के प्रति अचानक बढ़ी चिंता कांग्रेस के कुछ नेताओ के साथ साथ महापौर वाणी राव की चिंता जरुर बढ़ा चुकी होगी....
                    तमाम राजनैतिक बयानों के बीच किसी ने ये नही कहा की जिले में कई ऐसे स्वास्थ्य केंद्र है जहां डॉक्टर तक नहीं है...कई स्वास्थ्य केन्द्रों के ताले यदा-कदा खुलते है जिसको सरकार के मंत्री भी जान रहे है,विपक्षी लोग भी जानते है और वहां मौजूद नौकरशाह भी हकीकत से वाकिफ है मगर खास इतेफाक  किसी को नही रहा, वैसे भी वहां मौजूद लोगो की हैसियत के मुताबिक़ शहर में कई हॉस्पिटल है ...और फिर जन्मदिन शहर में शहरी समर्थको के बीच सरकारी आयोजन के जरिये मनाया जा रहा था  ऐसे में गरीबो के स्वास्थ्य का ख्याल जहेन में लाकर भला किसे मुह का टेस्ट बिगाड़ना था,सो सब वाह-वाह करके तालियाँ ऐसे ठोंकते रहे जैसे सर्कस में जोकर कोई नया करतब दिखाता है....वैसे भी तखतपुर के विधायक ने अपने संबोधन में मंत्री जी को दवा-दारु का इन्तेजाम अली बताकर लोगो को ठहाका लगाने का मौक़ा कई बार दिया...खैर सरकार की कई योजनाओं का हश्र मैंने करीब से देखा है,यकीं से कह सकता हूँ आपने भी देखा होगा मगर सरकार के खिलाफ वो लोग भी खुलकर नही बोल पाते जिन्हें योजनाओं की सफलता के लिए जिम्मा दिया जाता है....लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ साथ सिम्स की बदहाली को करीब से मैंने देखा है...मैंने देखा है मेडिकल कालेज में टॉर्च की रौशनी में ओपरेशन होते,मैंने देखा है भईया के इलाके के उन स्वास्थ्य केन्द्रों को जहां डॉक्टर के आभाव में मरीज आज भी दम तोड़ देते है...पर सब कुछ जानकर मै भी खामोश हूँ,कुछ कर नही सकता क्यूंकि जहां काम करता हूँ वहां भी भईया का दबदबा है इस वजह से केवल यही कह सकता हूँ की देखते है संजीवनी एक्सप्रेस  जिले की खराब सडको पर कितनी रफ़्तार पकड पाती है...? 

Sunday, August 28, 2011

देश में होली,दीपावली...!

             भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना के साथ पूरा देश २९० घंटे तक एक स्वर में चिल्लाता रहा जन लोकपाल बिल को सरकार संसद में पेश कर उसे पारित करे...जनता की आवाज़ का असर हुआ,सरकार उन मांगो पर तैयार हो गई जिसे लेकर कई बार बात बिगडती रही...रविवार की सुबह अन्ना ने अनशन ख़त्म किया लेकिन ये भी साफ़ कह दिया की जीत अभी पूरी नही हुई है...अन्ना के अनशन तोड़ते ही देश में होली,दीपावली जैसा माहोल बन गया...ख़ुशी से सडको पर नाचते लोग रंगों में रंगे रहे...हर कोई दूसरी क्रांति में मिली सफलता का जश्न मना रहा था...चारो और ख़ुशी और अन्ना के जयकारे लगते रहे...मगर अभी बहुत कुछ होना बाकी है...
  भारत का मध्यम वर्ग उस मछली की तरह है जो पानी के गंदा होने की शिकायत करते-करते उसके बिना रहने की बात करने लगा है. भारत में भ्रष्टाचार रहित शहरी जीवन की कल्पना करने पर लगता है कि मानो व्यवस्था ही ख़त्म हो जाएगी...भ्रष्टाचार के बिना जीवन बहुत कठिन होता है. अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है, पूरे टैक्स भरने पड़ते हैं, बिना पढ़े-लिखे पीएचडी नहीं मिलती, सिफ़ारिश नहीं चलती, सबसे तकलीफ़देह बात ये कि जेब में पैसे होने के बावजूद हर चीज़ नहीं ख़रीदी जा सकती...भ्रष्टाचार करोड़ों लोगों की रगों में बह रहा है, भारत में सबसे ज़्यादा लोगों को रोज़गार देने वाला उद्यम भारतीय रेल या कोल इंडिया नहीं है बल्कि ईश्वर की तरह सर्वव्यापी भ्रष्टाचार है....अन्ना सही हैं या ग़लत इस बहस को एक तरफ़ रखकर सोचना चाहिए कि अगर अन्ना का आंदोलन सफल हो गया तो उन्हें ही सबसे बड़ा झटका लगेगा जो लोग सबसे बुलंद आवाज़ में नारे लगा रहे हैं और ट्विट कर रहे हैं.
                   इस आंदोलन के समर्थन में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो राजनीतिक भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं और उन्हें लगता है कि जन-लोकपाल बिल से सिर्फ़ नेताओं की कमाई बंद होगी, उनका जीवन यूँ ही चलता रहेगा...जैसे मिलावट करने वाले दान भी करते हैं, पाप करने वाले गंगा नहाते हैं, उसी तरह बहुत से लोग भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मोमबत्तियाँ जला रहे हैं, इससे मन को शांति मिलती है, ग्लानि मोम की तरह पिघलकर बह जाती है....अन्ना हज़ारे को इस बात श्रेय ज़रूर मिलना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार को बहस का इतना बड़ा मुद्दा बना दिया है, हो सकता है कि यह एक बड़े आंदोलन की शुरूआत हो लेकिन अभी तो भावुक नारेबाज़ी, गज़ब की मासूमियत और हास्यास्पद ढोंग ही दिखाई दे रहा है....नेताओं का भ्रष्टाचार ग्लोबल वर्ल्ड में शर्मिंदगी का कारण बनता है, बिना लाइसेंस के कार चलाने पर पुलिसवाला पाँच सौ रुपए ऐंठ लेता है, ये दोनों बुरी बातें हैं, ये बंद होना चाहिए, क्या मध्यम वर्ग में सिर्फ़ मोमबत्ती जलाने वाले सज्जन लोग हैं जो दोनों तरफ़ से पिस रहे हैं? भ्रष्ट तरीक़े अपनाकर पैसा या रसूख हासिल करने वाले लोगों के प्रति सम्मान का भाव जब तक ख़त्म नहीं होगा भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ असली लड़ाई शुरू नहीं होगी...!

Tuesday, August 16, 2011

नई सुबह की पहली किरण के इन्तजार में....!

न्ना की आंधी इस देश में नया सबेरा लाएगी इसका यकीन हर उस हिन्दुस्तानी को हो गया है जो इस आजाद भारत से भ्रष्टाचार मिटाने की वकालत करता सड़क पर चिल्ला रहा है...इस देश में आज करोडो अन्ना उठ खड़े हुए है जो एक स्वर में जन-लोकपाल क़ानून की वकालत कर रहे है...मंगलवार यानी १६ अगस्त को अन्ना हजारे को जेल भेजकर सरकार ने देशवासियों को सन १९७५ के आपातकाल की याद दिला दी है... सरकार नेअना को जेल भेजा लेकिन उसके असर से केवल चंद घंटे तक ही बेखर रह सकी...शाम होते-होते सरकार को समझ आ गया की उन्होंने क्या कर दिया है,दुसरे शब्दों में कहूँ तो करीब १३ घंटे में सरकार दोनों खाने चित्त हो गई...पल-पल बदलते माहोल ने सरकार को इस नतीजे पर पहुचने पर मजबूर कर दिया की अन्ना को जेल से तत्काल रिहाई दे दी जाए...सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाकर लोकतंत्र के साथ केवल अन्याय ही किया...सरकार ने ये सार्वजनिक कर दिया कि उनकी नीतियों का जो भी खुलकर विरोध करेगा उसकी आवाज़ को कुचलने में कोई कोर कसर नही छोड़ी जाएगी...सरकारों के लिए सत्ता कि लड़ाई में हत्याएं करवाना,अपहरण जैसी घटनाओं को सुनियोजित तरीके से अंजाम दिलाना अब आम हो चला है...इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा आश्चर्य कि बात तो ये है कि सरकार ने जिस व्यक्ति का अपमान किया है वो आज भी उस कमेटी का सदस्य है जिस कमेटी ने ड्राफ्ट बिल तैयार करने का काम किया है...आज कपिल सिब्बल हो या केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदम्बरम या फिर अम्बिका सोनी,ये अन्ना को भला-बुरा कहकर स्वयं का अपमान ज्यादा कर रहे है...यक़ीनन देश की सत्ता संभाल रहे सियासी सुरमा इस बात को नही समझ पा रहे है या फिर समझ कर अनजान बनने की कोशिश कर रहे है,हकीकत जो भी है लेकिन जनता उनके बयानों को समझ भी रही है और करतूतों पर अब आवाज़ भी मुखर करने लगी है...
                               वैसे ये बात तो अब आईने की तरह साफ़ हो गई है की सरकार एक व्यक्ति की ललकार से काफी डर चुकी है,अन्ना की ललकार में सरकार को करोडो देशवासियों की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी है,यही वजह है कि अन्ना के खिलाफ चिल्ला रहे सुरमा भीगी बिल्ली बनकर अपने बयानों की गूंज को स्वयं ही सुन रहे है...इधर सरकार पूरी तरह से बेक फूट पर आ गई है,अन्ना सरकार के गले की हड्डी बन गए है जिसे सरकार ना निगल पा रही है ना उगल पा रही है...ये पूरा का पूरा मामला योग गुरु बाबा रामदेव से काफी अलग है,बेहद संवेदनशील मामला मानकर सरकार अब फूंक-फूंक कर कदम रखेगी ये माना जा सकता है...अन्ना के साथ जितने भी तरह के सरकारी अड़ंगे सरकार लगाती जायेगी उतनी ही तादात अन्ना के पीछे खड़ी नजर आएगी...वैसे भी कांग्रेस के खाते में चल रहे टू.जी. घोटाले,खेल प्रकरण,शीला दीक्षित का मामला पहले ही कांग्रेस की हवा निकाले हुए है...अन्ना को मिलते व्यापक जन समर्थन में कई सियासी दल भी एक होते दिख रहे है,जो केंद्र सरकार के अलावा शीला सरकार के खिलाफ आग में घी डालने का काम कर रहे है...खैर अन्ना फिलहाल तिहाड़ जेल में ही अनशन पर है,सरकार बार-बार अन्ना को मनाने की कोशिश में जुटी है की वो जेल से बाहर आ जाएँ ...अहिंसा की राह पर चलने का सन्देश पहले ही गांधीवादी अन्ना हजारे अपने समर्थको को दे चुके है....भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जारी है,देश के सभी हिस्सों में हर वर्ग,हर उम्र का इंसान खुद को अन्ना समझ रहा है जाहिर है ये जोश यही जज्बा इस देश की कमजोर होती जड़ो को मजबूती देगा...मुझे लगता है आज़ाद हिन्दुस्तान में नया सबेरा जल्द होने वाला है....उसी उम्मीद में उस नई सुबह की पहली किरण के इन्तजार में आज भी बैठा हूँ ...........!

Friday, July 29, 2011

...हमारे पास ईमानदारी नहीं है !


ज सारी दुनिया जिस मुल्क को, जिस मुल्क की तरक़्क़ी को आदर और सम्मान के साथ देख रही है, वह भारत है. लोग कहते हैं कि हिंदुस्तान में सब कुछ मिलता है, जी हां हमारे पास सब कुछ है... लेकिन हमें यह कहते हुए शर्म भी आती है और अफ़सोस भी होता है कि हमारे पास ईमानदारी नहीं है. हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भ्रष्टाचार कितनी गहराई तक उतर चुका है और किस तरह से बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बनकर हमारी नसों में समा चुकी है इसका सही अंदाज़ा करने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहता हूं.
एक गांव के स्कूल में इंटरवल के दौरान एक कुल्फी बेचने वाला अपनी साइकिल पर आता था और बच्चों में कुल्फियां बेचा करता था. उसका रोज़गार और बच्चों की पसंद, दोनों एक दूसरे की ज़रूरत थे. इंटरवल में उसकी साइकिल के चारों तरफ़ भीड़ लग जाती. ऐसे में कुछ शरारती लोग उसकी आंख घूमते ही कुल्फ़ी के डिब्बे में हाथ डाल कर कुछ कुल्फियां ले उड़ते. कुल्फियां कम होने का शक तो उसे होता, लेकिन रंगे हाथ न पकड़ पाने की वजह से वह कुछ कर नहीं पाता था...एक दिन उसने एक अजनबी हाथ को तब पकड़ लिया जब वह डिब्बे में ही था. वह लड़ पड़ा, तो इस लड़ाई का फ़ायदा उठाकर कुछ और हाथों ने सफ़ाई दिखा दी. यह देखकर कुल्फ़ीवाले ने अपना आपा खो दिया. फिर तो लूटने वालों के हौसले और बुलंद हो गये. जब क़ुल्फ़ीवाले को यह अहसास हुआ कि उसकी सारी कुल्फ़ियां लुट जाएंगी तो वह भी लूटने वालों में शामिल हो गया और अपने दोनों हाथों में जितनी भी क़ुल्फियां आ सकती थीं उन्हें लूट-लूट कर जल्दी जल्दी खाने लगा.
                                    जी हां, हमारे यहां बेईमानी, भ्रष्टाचार और खुली लूट का यही आलम हैं. इससे पहले कि कोई दूसरा लूट ले. हम ख़ुद ही ख़ुद को लूट रहे हैं....जुर्म, वारदात, नाइंसाफ़ी, बेईमानी और भ्रष्टाचार का सैकड़ों साल पुराना क़िस्सा नई पोशाक पहनकर एकबार फिर हमारे दिलों पर दस्तक दे रहा है. रगों में लहू बन कर उतर चुका भ्रष्टाचार का कैंसर. आखिरी ऑपरेशन की मांग कर रहा है. अवाम सियासत के बीज बोकर हुकूमत की रोटियां सेंकने वाले भ्रष्ट नेताओं के मुस्तकबिल का फैसला करना चाहती है. ये गुस्सा एक मिसाल है कि हजारों मोमबत्तियां जब एक मकसद के लिए एक साथ जल उठती हैं तो हिंदुस्तान का हिंदुस्तानियत पर यकीन और बढ़ जाता है....बेईमान सियासत के इस न ख़त्म होने वाले दंगल में अक़ीदत और ईमानदारी दोनों थक कर चूर हो चुके हैं. मगर फिर भी बेईमान नेताओं, मंत्रियों, अफसरों और बाबुओं की बेशर्मी को देखते हुए लड़ने पर मजबूर हैं. बेईमान और शातिर सियासतदानों की नापाक चालें हमें चाहे जितना जख़्मी कर जाएं. हमारे मुल्क के 'अन्ना' हजारों के आगे दम तोड़ देती हैं...महंगाई, ग़रीबी, भूख और बेरोज़गारी जैसे अहम मुद्दों से रोज़ाना और लगातार जूझती देश की अवाम के सामने भ्रष्टाचार इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा और सबसे खतरनाक बीमारी है. अगर इस बीमारी से हम पार पा गए तो यकीन मानिए सोने की चिड़िया वाला वही सुनहरा हिंदुस्तान एक बार फिर हम सबकी नजरों के सामने होगा. पर क्या ऐसा हो पाएगा? क्या आप ऐसा कर पाएंगे? जी हां, हम आप से पूछ रहे हैं. क्योंकि सिर्फ क्रांति की मशालें जला कर, नारे लगा कर, आमरण अनशन पर बैठ कर या सरकार को झुका कर आप भ्रष्टाचार की जंग नहीं जीत सकते. इस जंग को जीतने के लिए खुद आपका बदलना जरूरी है. क्योंकि भ्रष्टाचार और बेईमानी को बढ़ावा देने में आप भी कम गुनहगार नहीं हैं.
                                                      मंदिर में दर्शन के लिए, स्कूल अस्पताल में एडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए, नौकरी के लिए, रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए, मुकदमा जीतने और हारने के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए, कांट्रैक्ट लेने के लिए, यहां तक कि सांस लेने के लिए भी आप ही तो रिश्वत देते हैं. अरे और तो और अपने बच्चों तक को आप ही तो रिश्वत लेना और देना सिखाते हैं. इम्तेहान में पास हुए तो घड़ी नहीं तो छड़ी...अब आप ही बताएं कि क्या गुनहगार सिर्फ नेता, अफसर और बाबू हैं? आप एक बार ठान कर तो देखिए कि आज के बाद किसी को रिश्वत नहीं देंगे. फिर देखिए ये भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी कैसे खत्म होते हैं...आंकड़े कहते हैं कि 2009 में भारत में अपने-अपने काम निकलवाने के लिए 54 फीसदी हिंदुस्तानियों ने रिश्वत दी. आंकड़े कहते हैं कि एशियाई प्रशांत के 16 देशों में भारत का शुमार चौथे सबसे भ्रष्ट देशों में होता है. आंकड़े कहते हैं कि कुल 169 देशों में भ्रष्टाचार के मामले में हम 84वें नंबर पर हैं.
आंकड़े ये भी बताते हैं कि 1992 से अब तक यानी महज 19 सालों में देश के 73 लाख करोड़ रुपए घोटाले की भेंट चढ़ गए. इतनी बड़ी रकम से हम 2 करोड़ 40 लाख प्राइमरी हेल्थसेंटर बना सकते थे. करीब साढ़े 14 करोड़ कम बजट के मकान बना सकते थे. नरेगा जैसी 90 और स्कीमें शुरू हो सकती थीं. करीब 61 करोड़ लोगों को नैनो कार मुफ्त मिल सकती थी. हर हिंदुस्तानी को 56 हजार रुपये या फिर गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे सभी 40 करोड़ लोगों में से हर एक को एक लाख 82 हजार रुपये मिल सकते थे. यानी पूरे देश की तस्वीर बदल सकती थी...तस्वीर दिखाती है कि भारत गरीबों का देश है. पर दुनिया के सबसे बड़े अमीर यहीं बसते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो स्विस बैंक के खाते में सबसे ज्यादा पैसे हमारा जमा नहीं होता. आंकड़ों के मुताबिक स्विस बैंक में भारतीयों के कुल 65,223 अरब रुपये जमा है. यानी जितना धन हमारा स्विस बैंक में जमा है, वह हमारे जीडीपी का 6 गुना है....आंकड़े ये भी बताते हैं कि भारत को अपने देश के लोगों का पेट भरने और देश चलाने के लिए 3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लेना पड़ता है. यही वजह है कि जहां एक तरफ प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, वही दूसरी तरफ प्रति भारतीय पर कर्ज भी बढ़ रहा है. अगर स्विस बैंकों में जमा ब्लैक मनी का 30 से 40 फीसदी भी देश में आ गया तो हमें कर्ज के लिए आईएमएफ या विश्व बैंक के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे....स्विस बैंक में भारतीयों का जितना ब्लैक मनी जमा है, अगर वह सारा पैसा वापस आ जाए तो देश को बजट में 30 साल तक कोई टैक्स नहीं लगाना पड़ेगा. आम आदमी को इनकम टैक्स नहीं देना होगा और किसी भी चीज पर कस्टम या सेल टैक्स नहीं लगेगा...सरकार सभी गांवों को सड़कों से जोड़ना चाहती है. इसके लिए 40 लाख करोड़ रुपये की जरूरत है. अगर स्विस बैंक से ब्लैक मनी वापस आ गया तो हर गांव तक चार लेन की सड़क पहुंच जाएगी,जितना धन स्विस बैंक में भारतीयों का जमा है, उसे उसका आधा भी मिल जाए तो करीब 30 करोड़ नई नौकरियां पैदा की जा सकती है. हर हिंदुस्तानी को 2000 रुपये मुफ्त दिए जा सकते हैं. और यह सिलसिला 30 साल तक जारी रह सकता है. यानी देश से गरीबी पूरी तरह दूर हो सकती है..पर ऐसा हो इसके लिए आपका बदलना जरूरी है. वर्ना 'अन्ना हजारों' की मुहिम बेकार चली जाएगी.
                                      दिल्ली का जन्तर-मंतर. यानी वह दहलीज़ जहां से देश का ग़ुस्सा अपने ज़िल्लेइलीही से फ़रियाद करता है. ये फ़रियादें दराबर के किस हिस्से तक पहुंचने में कामयाब होती हैं इसी बात से फ़रियाद के क़द और उसकी हैसियत का अंदाज़ा लगाया जाता है. लेकिन इस बार चोट थोड़ी गहरी है.अन्ना देश के अन्ना हैं. इस बार जंतर मंतर पर ग़म और ग़ुस्से का अजीब संगम है. किसी को आम आदमी का त्योहार देखना हो तो उसे जंतर मंतर का नज़ारा ज़रूर करना चाहिये. हर तरफ़ बस एक ही शोर है कि शायद अन्ना का ये अनशन आम आदमी के हक़ में एक ऐसा क़ानून बना सके जिसके डर से भ्रष्टाचारी को पसीने आ जाएं. क्योंकि अन्ना के समर्थन में आने वालों का ये मानना है कि अन्ना जो कहते हैं सही कहते हैं.जिन्हें शक है कि अन्ना ऑटोक्रेटिक हैं, निरंकुश हैं या सियासी लोग उन्हें इस्तेमाल कर लेते हैं. उन्हें जंतर-मंतर के इस ग़म और ग़ुस्से को क़रीब से महसूस करना चाहिये. ये भीड़ किसी वोट बैंक का हिस्सा नहीं बल्कि उनकी है जो भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं. ..अगर हम तंग आ चुके इन हज़ारों लोगों को किसी एक नाम से पुकारेंगे तो यक़ीनन वह नाम अन्ना ही होगा...! 

Friday, July 8, 2011

साक्षरता दर बढ़ने का फंडा...







जि देश में शिक्षा की अनिवार्यता का क़ानून लागू है वहा शिक्षा के कई रंग,कई रूप देखने को मिल जायेंगे...देश के अलग-अलग प्रान्तों की बात कुछ देर के लिए दर किनार कर भी दे तो छत्तीसगढ़ में शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा है ऐसा भी नही है....मै राज्य की न्यायधानी यानि की बिलासपुर में रहता हूँ...जिले के कई स्कूलों पर खबर के जरिये कभी प्रशाशन तो कभी सियास्त्दारो को जगाने की कोशिशे की  मगर हालात देखकर लगता है कोई जागना नही चाहता....
                               दरअसल जिनके बच्चे महंगी प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा ले रहे हो उन भ्रष्ट अफसरों से इमानदारी की उम्मीद यक़ीनन बेमानी होगी...बिलासपुर में पिछले दिनों जिले के प्रभारी मंत्री हेमचंद यादव और कई सियासी सूरमाओ की मौजूदगी में नवप्रवेशी बच्चो के माथे पर तिलक लगाकर शाला प्रवेशोत्सव मनाया गया...सरकारी आयोजन था सो बच्चो को साफ़ सुथरे कपड़ो में स्कूल आने कहा गया था,कतार में बिठाकर शिक्षा को बढ़ावा देने के सरकारी नारे काफी देर तक लगते रहे....कुछ देर के लिए लगा सारे कुम्भकरण एक साथ जाग गए...खैर सच सबको दिख रहा है...सरकार कितनी संवेदनशील है शिक्षा के प्रति इसके लिए शहर के कई स्कूलों में केवल जाकर देखने की जरुरत है.... 
                                  इस पोस्ट को लिखते-लिखते मुझे याद आया की शहर के मराठी स्कूल की ओर किसी का ध्यान नही है जबकि वो धरोहर है...सन १९२२ से चटापारा में संचालित स्कूल की आज ये स्थिति है की ५ कक्षाओ में केवल १९ बच्चे पढने आ रहे है वो भी इस शिक्षा सत्र में दूसरी स्कूलों को जाने का मान बना चुके है वजह है स्कूल की जर्जर अवस्था,इसी तरह सकरी नगर पंचायत में तो कई सरकारी स्कूल भवनों के अभाव में किराये के मकान में लग रहे है...कुछ स्कूलों के बच्चे एडजेस्टमेंट में पढ़ रहे है....बिना भवनों के सरकारी स्कूल,बिना शेड के पकता मध्यान भोजन और शिक्षको की कमी के बावजूद सरकार के दावे की वो शिक्षा के लिए हर बरस करोडो खर्च कर रहे है निश्चित तौर पर सियासी जमात के झूठ और गिरगिट की तरह रंग बदलती सूरत पेश कर देती है...पिछले कई साल से सरकार शिक्षा के स्तर को सुधरने की बात कहती आ रही है मगर जो हकीकत है वो इस पोस्ट पर लगाई गई तस्वीरे साफ़ कर देती है....

Tuesday, July 5, 2011

लक्स,डॉलर,रूपा....

लक्स,डॉलर,रूपा,स्वागत। ये वो ब्रांड हैं जो ब्रेक में टीवी पर सेक्स,क्राइम और क्रिकेट के कार्यक्रम ख़त्म होते ही उनकी कमी पूरी कर देते हैं। इन दिनों टीवी पर ऐसे विज्ञापनों की भरमार हैं। देख कर तो लगता नहीं कि इनके स्लोगन किसी प्रसून जोशी या पियूष पांडे जैसे विज्ञापन विप्रों ने लिखी हो। 
                                                 इन विज्ञापनों को बहुत करीब से देखने की ज़रूरत भी नहीं। देख सकते हैं क्या? देखना चाहिए। हर विज्ञापन में मर्द अपनी लुंगी तौलिया उतार कर बताता है कि अंडरवियर पहनने की जगह कौन सी है। क्या पता इस देश में लोग गंजी की जगह अंडरवियर पहन लेते हों। इसीलिए डायरेक्टर साहब ठीक से कैमरे को वहां टिकाते हैं। उक्त जगह पर अंडरवियर देखते ही युवती चौंक जाती है। डर जाती है। फिर सहज और जिज्ञासु हो जाती है। मर्दानगी,सेक्सुअलिटी और अंडरवियर का पुराना रिश्ता रहा है।
                                              हमने वेस्ट से नकल की है। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आने के बाद से ही पश्चिम मुखी भारतीयों ने अंडरवियर को स्वीकार किया होगा। पहला खेप मैनचेस्टर से उतरा होगा बाद में अपने कानपुर में बनने लगा होगा। इसमें किसी को शक हो तो एक भी विज्ञापन ऐसा दिखा दे जिसमें लंगोट के मर्दानापन की दाद देते हुए उसके टिकाऊ होने का स्लोगन रचा गया हो। भारतीय संस्कृति के प्रवर्तकों के बाद समर्थकों के इस युग में कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो लंगोट को भारतीय मर्दानगी का प्रतीक बनाने के लिए कंपनी बनाये,टीवी पर विज्ञापन दे। कहे-लंगोट- चोट न खोट। सब के सब इस पाश्चात्य अंडरवियर काल में बिना प्रतिरोध किये जी रहे हैं। 
                                                               आप चाहे जितना कमज़ोर हों होज़ियरी के अंडरवियर बनियान को पहनते ही ताकतवर हो जाते हैं। विज्ञापनों में अंडरवियर प्रदर्शन के स्थान का भी आंकलन कीजिए। पता चलेगा कि अंडरवियर पहनने या उसे प्रदर्शित करने की जगह बाथरुम,बेडरुम या स्वीमिंग पूल ही है।अभी तक किसी विज्ञापन में अंडरवियर पहनन कर कारपोरेट रूम में आइडिया देते हुए शाहरूख़ ख़ान को नहीं दिखाया गया है।अंडरवियर के विज्ञापनों में कोई बड़ा माडल नहीं दिखता। नाकाम और अनजान चेहरों की भीड़ होती है। सनी देओल जैसे बड़े हीरो सिर्फ गंजी या बनियान के विज्ञापन में ही नज़र आते हैं। 
                         कोई नहीं कहता कि अंडरवियर अश्लील है।यह बात अभी तक समझ नहीं आई है कि अंडरवियर के विज्ञापन में अचानक युवती कहां से आ जाती है।वो स्वाभाविक रुप से वहीं क्यों देखती है जिसके देखते ही आप रिमोट उठा लेते हैं कि ड्राइंग रूम में कोई और तो नहीं देख रहा।यही बात है तो कॉलेज के दिनों में लड़के ली की जीन्स और वुडलैंड की कमीज़ पर पैसा न बहाएं। सौ रुपया अंडरवियर पर लगाए और यही पहन कर घूमा करें। लड़कियां आकर्षित हो जाएंगी।एक सर्वे यह हो सकता है कि लड़कियां लड़कों में क्या खोजती है? अंडरवियर या विहेवियर। डॉलर का एक विज्ञापन है।लड़का समुद्र से अंडरवियर पहने निकलता है। पास में बालीवॉल खेल रहीं लड़कियों की उस पर नज़र पड़ती है।देखते ही वो अपना बॉल फेंक देती हैं। पहले अंडरवियर देखती हैं फिर नज़र पड़ती है ब्रांड के लेबल। अच्छे ब्रांड से सुनिश्चित हो लड़कियां अंडरवियर युक्त मर्द को घेर लेती हैं। अंत में एक आवाज़ आती है- मिडास- जिस पर सब फ़िदा। एक विज्ञापन में एक महिला का कुत्ता भाग जाता है। वो कुत्ते को पकड़ते हुए दौड़ने लगती हैं। तभी कुत्ते को पकड़ने वाले एक सज्जन का तौलिया उतर जाता है। सामने आता है अंडरवियर और उसका ब्रांड। युवती फ़िदा हो जाती है। इसी तरह अब लड़कियों के लिए भी विज्ञापन आने लगता है। एक विज्ञापन में टीवी फिल्म की मशहूर अदाकारा(नाम नहीं याद आ रहा) अचानक उठती हैं और लड़कियों को गाली देने लगती है कि तुम सब ठेले से क्यों खरीदती हो। उन्हें ललकार उठती हैं। यह ललकार उनकी क्लास रूम से बाहर जाती है। पूछती है कि जब लड़के पहन रहे हैं,तो आप लोग क्या कर रही हैं। दूसरी तरफ लड़कियों के उत्पादों में लड़के नहीं आते। वहां या तो एक लड़की होती है या कई लड़कियां। उन्हें पहनता देख या पहना हुआ देख कोई मर्द खीचा चला नहीं आता। यह विज्ञापन जगत का अपना लिंग आधारित इंसाफ है। अवमानना से बचने के लिए चुप रहूंगा।
                             मर्दानगी की सीमा कहां से शुरू होती है और कहां ख़त्म अंडरवियर कंपनी को मालूम होगा। इतने सारे विज्ञापन क्या बता रहे हैं? क्या अंडरवियर कंपनियों में यह विश्वास आ गया है कि वो अब टीवी पर भी विज्ञापन दे सकते हैं। हाईवे और हाट तक सीमित नहीं रहे। अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनलों पर इस तरह के विज्ञापन का आक्रमण कम है।कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदी प्रदेशों के उपभोक्ताओं का अंडरवेयर पहनने का प्रशिक्षण किया जा रहा है।प्रिंट में तो इस तरह के गुप्त वस्त्रों का विज्ञापन आता रहता है। लेकिन टीवी पर संवाद और संगीत के साथ इतनी बड़ी मात्रा में सार्वजनिक होता देख विश्लेषण करने का जी चाहा।
                                       यह भी भेद बताना चाहिए कि गंजी के विज्ञापन की मर्दानगी अलग क्यों होती है। क्यों सनी देओल गंजी पहन कर गुंडो को मार मार कर अधमरा कर देता है। जबकि उसी कंपनी का गुमनाम मॉडल जब अंडरवियर पहनता है तो उसकी मर्दानगी दूसरी किस्म की हो जाती है। वो किसी को मारता तो नहीं लेकिन कोई उस पर मर मिटती है। ख़ैर इस बाढ़ से परेशानी हो रही है। मुझे मालूम है कि देश को स्कूलों में सेक्स शिक्षा से एतराज़ है। अंडरवियरों के विज्ञापन में सेक्सुअलिटी के प्रदर्शन से किसी को एतराज़ नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि कल कोई मानवाधिकार आयोग चला जाए। यहां मामला इसलिए उठ रहा है कि इसे समझने की ज़रूरत है। इतने सारे विज्ञापनों का अचानक आ जाना संदेह पैदा करता है। इनका कैमरा एंगल बदलना चाहिए। हर उत्पाद का विज्ञापन होना चाहिए। उत्पादों को सेक्सुअलिटी के साथ मिक्स किया जाता रहा है। बस इसमें फर्क इतना है कि मामला विभत्स हो जाता है। बहरहाल न्यूज़ चैनलों को गरियाने के इस काल में उस विज्ञापन को गरियाया जाना चाहिए। कुछ हो न हो थोड़ी देर के लिए न्यूज़ चैनलों को आराम मिल जाए। वैसे भी एक अंडरवियर का विज्ञापन यही तो कहता रहा कई साल तक-जब लाइफ़ में हों आराम तो आइडिया आते हैं। लक्स अंडरवियर का विज्ञापन कहता है कि अपना लक पहन कर चलो।

Friday, June 24, 2011

भारतीय स्त्री और...


पिछले कुछ अरसे से भारतीय मीडीया में भारतीय स्त्री का अस्तित्व बहुत ही मुखर होकर उभरा है चाहे वह कला व साहित्य हो, टेलेविजन हो या हिन्दी सिनेमा हिन्दी साहित्य में यह बोल्डनेस साठ के दशक से आरंभ होकर आज मैत्रेयी पुष्पा के बहुचर्चित उपन्यास चाक और मृदुला गर्ग के कठगुलाब तक चली आ रही है उस पर विशुध्द कला और साहित्य को तो मान लिया जाता है कि कुछ बुध्दीजीवी लोगों का क्षेत्र है नैतिक-अनैतिक शील-अश्लील की बहस उनमें आपस में होकर खत्म हो जाती है आम आदमी का क्या वास्ता?
                किन्तु टेलेविजन और सिनेमा?? जब तक दूरदर्शन विशुध्द भारतीय छवि में रहा, वहां स्त्री अपनी पूर्ण मर्यादा के साथ दिखाई जाती रही, और विवाहेतर सम्बंध से पुरूषों को ही जोडा जाता था, वह भी पूरे खलनायकी अन्दाज में और दर्शकों की पूरी सहानुभूति पत्नी के साथ होती थी जैसे ही अन्य चैनलों का असर बढा और बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल की तर्ज पर शोभा डे और महेश भट्ट के स्वाभिमान जैसे कई धारावाहिक बने जिनमें विवाहेतर सम्बंधों को बहुत अधिक परोसा गया, ऐसे में दूरदर्शन भी पीछे न रहाझडी लग गई ऐसे धारावाहिकों की और अब यह हाल है कि बहुत गरिष्ठ खाकर दर्शकों को जब उबकाई आई और ये धारावाहिक अब उबाने लगे तो ऐसे में आजकल एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी जैसे भारतीय संस्कृति से जुडे धारावाहिकों का सुपाच्य रूप फिर से लोकप्रिय हो गया
और हिन्दी सिनेमा! समानान्तर फिल्मों में कुछ पुरूषों के विवाहेतर संबंधों को जस्टीफाई करती अर्थ,  ये नजदीकियां जैसी कुछ फिल्में आई थीं जो कि एक अलग सोसायटी का प्रतिनिधित्व करती थीं
किन्तु अभी पिछले दो-चार सालों रीलीज्ड़ फिल्मों आस्था और अस्तित्व जैसी फिल्मों ने स्त्री की सेक्सुएलिटी पर बहुत ही गंभीर किस्म के प्रश्न उठाए हैं यह प्रश्न चौंकाने वाले थे, क्योंकि इसमें विवाहेतर संबंध रखने वाली स्त्री शोभा डे के उपन्यासों की उच्च वर्ग की वुमेन लिब का नारा लगाती स्त्री नहीं थी, न निचले तबके की मजबूर स्त्री थी 
                 यह तो भारतीय समाज का प्रतिनीधित्व करने वाले वर्ग मध्यमवर्ग की नितांत घरेलू, खासी पारम्परिक स्त्री और उसकी मायने न रखने वाली नारी की देह और इच्छाओं पर गंभीर प्रश्न उठा था इस प्रश्न ने सबको सकते में डाल दिया था पुरूष सोचता रहा क्या ये भी हमारी तरह सोच सकती हैं? स्त्री स्वयं हतप्रभ थी, क्या उसका भी घर-परिवार से अलग अस्तित्व हो सकता है? ये कैसे प्रश्न थे, जो आज तक तो उठे नहीं थे इसे तो पश्चिमी सभ्यता का असर कह कर टाला नहीं जा सकता क्या ये नए प्रश्न कुछ सोचने को मजबूर नहीं करते अगर साहित्य और मीडिया समाज का दर्पण हैं तो...

Tuesday, June 7, 2011

देश के इतिहास की सबसे बड़ी रामलीला

अनशासन यानी अनशन का आसन। बाबा रामदेव हठयोग पर उतर आए हैं। वह सरकार से शीर्षासन कराना चाहते हैं। वैसे बाबा की बाबागिरी का विवादों से पुराना रिश्ता है। वह विवाद पैदा कर मीडिया में बने रहते हैं। मामले को वो उठाते जरूर हैं लेकिन उस पर 'अडिग आसन' नहीं लगाते। पिछले कई दिनों से बाबा की रामलीला को देश देख रहा है। रामलीला मैदान पर शनिवार की रात जब महाभारत शुरू हुई तो रामदेव मंच से कूदकर भाग गए।कांग्रेस और राम के विरोधियो को मौक़ा मिल गया वो तो जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहे है सत्याग्रह करने वालो रणछोड़ नही होते।कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह बाबा को ठग,झूठा और ना जाने क्या क्या कहते थक नही रहे है वहीँ आर.एस.एस. और भाजपा को कांग्रेस के खिलाफ बैठे बिठाये चिल्लाने का एक मौक़ा मिल गया।मुझे याद है रामदेव ने कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली मल्टीनैशनल कंपनियों पर जब उन्होंने हमला किया था तो खूब हो-हल्ला मचा था। तब बाबा ने कहा था कि कोल्ड ड्रिंक से टॉयलेट साफ किया जाए, तो तेजाब की जरूरत नहीं रह जाएगी। थोड़े दिन तो बाबा इन कंपनियों से मोर्चा लेते रहे, पर बाद में इस मुद्दे को भूल गए। सवाल यही है कि काले धन के आंदोलन पर भी वह कितने दिन टिके रहेंगे और रामलीला मैदान से शुरू हुई उनकी पांच सितारा लीला आखिर कब तक जारी रहेगी? सरकार ने रामलीला मैदान में महाभारत शुरू की तो बाबा हरिद्वार पहुंचा दिए गए,अभी वो वहीं से चिल्ला रहे है बाबा अपनी राजनीतिक बाबागीरी करते हुए किस मुकाम तक पहुंचेंगे यह तो आनेवाला वक्त बेहतर बताएगा। लेकिन बाबा का योगगीरी में कोई जवाब नहीं है। उन्होंने अपने योग ज्ञान से देश-दुनिया में अलोपथी दवाएं बनाने वाली कंपनियों के खिलाफ एक सार्थक हस्तक्षेप किया। योग विद्या को उन्होंने आसान तरीके से सबके सामने रखा और एक टीवी चैनल से शुरू की हुई अपनी यात्रा को उन्होंने इस मुकाम तक पहुंचा दिया कि आज उनके पीछे करोड़ों लोग हैं। यक़ीनन इसी मुगालते में बाबा उन कर्मयोगियो {कांग्रेस}की पार्टी से टकरा गए है जिनको भर्ष्टाचार,झूठ और राज करने का ६ दशक का अनुभव है,वो अनुभवी नेता अब बाबा की फजीहत पर उतारू हो चुके है ....
              जो मुझे लगा... रामदेव और अन्ना हजारे प्रसंग में गांधी का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है...अन्ना के सात्विक अनशन के वक्त देश को गांधी की याद आई..कुछ ने अन्ना में गांधी ढूंढ़ना शुरू भी कर दिया...अन्ना हजारे भले मानुष हैं...उन्होंने ऐसी चाटुकारिता को खारिज करते हुए सत्य कहा कि वे तो गांधी के पैर की धूल के बराबर भी नहीं हैं. इसके बरक्स बाबा रामदेव बहुत चतुराई के साथ अपने अनशन आंदोलन को गांधीवादी नस्ल का करार दे रहे हैं. वे बात बात में गांधी जी की याद करने लगते हैं जिससे लोग रामदेव के मार्फत गांधी को नहीं भूले. ऐसा करने से गांधी का नुकसान और रामदेव का फायदा तो होता है...रामदेव कैमरे के सामने बार बार एकालाप कर रहे हैं कि गांधी होते तो दिल्ली पुलिस की बर्बरता देखकर रोने लगते. इतिहास में गांधी कभी नहीं रोए...अलबत्ता वे लोगों की आंखों से बहने वाले आंसू पोछते रहे...गाँधी आत्म क्रूर व्यक्ति थे...उन्होंने अपनी भावनाओं पर मनसा वाचा कर्मणा नियंत्रण कर लिया था. साबरमती आश्रम के एक कुष्ठ रोगी का मलमूत्र साफ करने से इंकार करने पर गांधी ने अपनी उस बड़ी बहन को आश्रम निकाला दे दिया जिसे मातृविहीन गांधी अपनी माता कहते थे. अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ उन्होंने ऐसा ही सलूक किया था. करोड़ों की दवाइयां बेचने वाले स्वामी रामदेव के आश्रम या योगपीठ में कितने कुष्ठ रोगियों की मुफ्त सेवा हो रही है?अद्भुत सांस्कृतिक विचारक राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि त्रेता के राम रोऊ थे. पत्नी सीता के अपहरण के बाद वे जंगल में पशु पक्षियों और पेड़ पौधों से रो रोकर सीता का पता पूछते थे. इसके बरक्स द्वापर के कृष्ण कभी नहीं रोए. जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था केवल तब कृष्ण की आंखें डबडबाई थीं. रामदेव ने तो खुद का चीरहरण किया और रोए भी. भट्टा पारसौल में जब मायावती की पुलिस स्त्रियों का चीरहरण कर रही थी तब रामदेव दूरदर्शन पर क्यों नहीं रोए? भट्टा पारसौल के निकट नोएडा में अनशन करने के लिए उन्होंने मायावती से क्या इसलिए अनुमति मांगी है कि वे टेलीविजन चैनलों के मुख्यालयों के नज़दीक होने के कारण हंस हंसकर अपनी प्रचार दुकान सजाएं? गांधी ने महाभारत के अठारह अध्याय पढ़े थे, अठारह पुराण भी. वे शांति पर्व को महाभारत का निकष बताते हैं. वे तो यहां तक कहते हैं कि गीता युद्ध की निस्सारता का दस्तावेज है. इससे गांधी के समकालीन संघ परिवार के पूर्वज सावरकर सहमत नहीं थे. सहमत तो लोकमान्य तिलक भी नहीं थे...आज जो लोग हिन्दुस्तान की राजनीति में धार्मिक नफरत, जातीय विद्वेष और आतंकवादी हिंसा घोलने के पंजीबद्ध अभियुक्त हैं, वे भी. रामदेव अपने मंच पर उनका सम्मान क्यों करते हैं. गांधी कभी भी चार्टर्ड हवाई जहाज या हेलिकॉप्टर से यात्रा नहीं करते थे. रामदेव द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में यात्रा क्यों नहीं करते? अरबपति लोग और फिल्मी तारिकाएं उनके चेले चेलियां क्यों हैं? बाबा ने विदेशों में जमीन क्यों ले ली है. बाबा ढेरों कंपनियों के निर्माता क्यों हैं? गाधी तो सादगी के पुजारी थे. यदि उन्हें आंदोलन करना भी होता तो वे अठारह करोड़ रुपया खर्च कर देश के इतिहास की सबसे बड़ी रामलीला आयोजित नहीं करते. पता नहीं रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण पर कितना खर्च हुआ होगा? चंपारण का नील सत्याग्रह हो. दांडी का नमक मार्च हो या देश में की गई हरिजन यात्रा हो-गांधी ने वह सब तामझाम कहां दिखाया, रामलीला मैदान जिसका इतिहास में पूंजीवादी प्रस्थान बिंदु होगा. गांधी के मुंह में तो क्या मन में भी अंगरेजों के लिए कोई नफरत नहीं थी. अंगरेजियत से उनको अलबत्त नफरत थी. बाबा को अपने आलोचकों, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह वगैरह से नफरत क्यों है? गांधी ने तो कभी भी अंगरेज प्रधानमंत्री और भारतीय वाइसरॉय से बोलचाल की खुट्टी नहीं की. चर्चिल ने ही तो गांधी को ‘नंगा फकीर‘ कहा था. गांधी ने इतिहास में सिद्ध किया कि वे वास्तव में दिगंबर फकीर हैं. अंगरेज के पास शब्दों का टोटा था इसलिए उसने दिगंबर शब्द का उच्चारण नहीं किया. रामदेव भगवा फकीर क्यों नहीं कहलाना चाहते जिसके प्रवर्तक विवेकानन्द हैं?
योग की अमरबेल 
हरियाणा के महेंद्रगढ़ के अली सैयदपुर नामके एक साधारण से गांव में 25 दिसंबर, 1965 में जन्मे बाबा रामदेव के बचपन का नाम रामकृष्ण था। 9 वर्ष की उम्र में वह रामप्रसाद बिस्मिल और सुभाष चंद्र बोस सरीखे क्रांतिकारियों के चित्र टकटकी लगाकर घंटों देखते थे। उनके मन में विचार उठता कि जब ये अपने अपने पुरुषार्थ से युवकों के आइकन बन सकते हैं तो मैं क्यों नहीं बन सकता? उन्होंने शहजादपुर के सरकारी स्कूल से आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की। इसके बाद खानपुर गांव के एक गुरुकुल में आचार्य प्रद्युम्न व योगाचार्य बलदेवजी से संस्कृत व योग की शिक्षा ली। इसके बाद कुछ करने का संकल्प लेकर उन्होंने अपने परिवार को छोड़ संन्यास ले लिया। योग शिक्षा के दौरान वे हिमालय की यात्रा पर भी गए। प्राचीन पुस्तकों व पांडुलिपियों का अध्ययन करने हरिद्वार आकर कनखल के कृपालु बाग आश्रम में रहने लगे। टीवी से जब उनकी लोकप्रियता शिखर पर पहुंचने लगी तो उन्होंने 1995 में दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की। आचार्य बालकृष्ण के साथ उन्होंने अगले ही वर्ष दिव्य फॉर्मेसी के नाम से आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण शुरू किया। इसके बाद बाबा के दावों का सिलसिला शुरू हो गया। वे कहते हैं कि असाध्य से असाध्य बीमारी वे योग से ठीक कर सकते हैं। उनके दावों का समर्थन करने वाले हजारों है तो कुछ विरोध करने वाले भी हैं। बाबा कठमुल्लावादी भी नहीं हैं। परंपरा को वह ज्ञान का स्त्रोत मानते हैं और उसे आधुनिक ज्ञान से जोड़ने के पक्षधर हैं। इसीलिए उनके गुरूकल में पारंपरिक विषयों से लेकर आधुनिक विषयों : फिजिक्स, केमिस्ट्री और कंप्यूटर आदि की भी शिक्षा दी जाती है। बाबा वैसे तो साधारण जीवन जीते हैं। सिर्फ भगवा वस्त्र धारण करते हैं। हालांकि सफर वह चार्टेड प्लेन और एयरकंडीशंड लंबी महंगी कारों में करते हैं। 

दावे और सच्चाई
आयुर्वेद और योग को मिलाकर बाबा रामदेव दुनिया को स्वस्थ करना चाहते हैं। उनका कहना है कि एक बार यदि कोई दवाओं के चक्कर में पड़ जाता है, तो उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। वे बर्गर को बरबादी का घर और पिज्जा को सेहत पीने वाला कहते हैं। वह सीधे और सरल तरीके से अपनी बात कहते हैं, इसलिए लोगों के जेहन में उनका सम्मान है। आज देश विदेश में उनके लाखों भक्त हैं। इन्हीं लाखों भक्तों के सहारे वे सरकार को शीर्षासन कराने निकले हैं। काले धन की बात चली है, तो अब इस देश की जनता के मन में यह सवाल भी उठ रहा है कि खुद बाबा ने डेढ़ दशकों में कई हजार करोड़ कैसे बना लिए। हालांकि उन्होंने अपनी संपत्ति की घोषणा कर दी है। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि ये करोड़ों रुपये अगर चंदे से आए हैं, तो उसका काला-सफेद सच क्या है। कौन काले व्यापारियों का यह धन है। बाबा को काले धन के खिलाफ अपने आंदोलन को चलाने के साथ इन सवालों का जवाब देना ही पडे़गा।वैसे भी कांग्रेस ने बाबा के कई योगियों,साधुओ पर नजरे बिछा दी है ,बाबा कब तक महिलाओ को सुरक्षा कवच बनाकर योग की आड़ में सत्तासुखासन का खवाब देखेंगे...?