Wednesday, December 21, 2011

...अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर की तरह बनें

तीन लड़कियों ने एक साथ आत्महत्या की', 'दो युवा भाइयों की मौत से घर उजड़ा', आए दिन अखबारों के ये शीर्षक सुर्खियों में रहते हैं। ये सुर्खियां हमारे भीतर आकस्मिक भय और घबराहट उत्पन्न करती हैं। मनोवैज्ञानिक लक्षणों के चलते आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं जो चेतावनीसूचक है। वो दिन हवा हुए, जब माता-पिता बच्चों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करते थे। बच्चे मटरगश्ती करते रहते थे, पतंग उड़ाने में मस्त रहते थे, पड़ोसियों की नकल उतारते रहते थे और अपने आप में मग्न रहा करते थे। जिन्दगी का सामान्य आनन्द व  अनुभूतियां अब सिर्फ प्रेमचंद के उपन्यासों और कॉल्विन या डेनिस के कार्टून चरित्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं। यह कष्टकारक है। आज के माता-पिताओं की ख्वाहिश होती है कि उनके बच्चे अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर और सलमान खान की तरह बनें।
              शताब्दी के बदलने के साथ ही काफी कुछ बदला है। ज्यादा जागरूकता उत्पन्न हुई है, वैश्विक बाजार खुला है और मीडिया के प्रचार से लोगों की जरूरतों में इजाफा हुआ है तथा व्यक्तिगत रूप से लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं। हर कोई भाग-दौड़ और जल्दी में है, तेज और दु्रतगति से आर्थिक एवं सामाजिक सफलता की सीढियां मापने की कोशिश में है। अंधी दौड़ और सफलता की होड़ का यह पुलिन्दा सुव्यवस्थित ढंग से हावी है और इसे लाखों तरह के दबाव के बोझ के रूप में निरूपित किया जा सकता है। यह परिदृश्य केवल प्रौढ़ लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी चपेट में किशोर और बच्चे तक आ रहे हैं। 
            दबाव, थकान या तनाव को परिभाषित करना मुश्किल है लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह हमारे शरीर और मस्तिष्क पर असर डालता है। बचपन के दबाव के कारण विविध प्रकार के होते हैं। ऎसे नाजुक समय में, जबकि बच्चे को अपने माता-पिता का भरपूर समय और कोमल अपनत्व मिलना चाहिए, वह आया या क्रेच की देखरेख छोड़ दिया जाता है। माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए कोई समय नहीं होता है और वे इस अपराध बोध से छुटकारा पाने के लिए बच्चे की गैरजरूरी मांगों को पूरा कर देते हैं जबकि इस तरह की मांग को प्यार से फुसलाकर दूसरा रूप दिया जा सकता है।
      दूसरी ओर, माता-पिता अपने बच्चे से ज्यादा उम्मीद कर बैठते हैं। वे बच्चे में उसका व्यक्तित्व नहीं, बल्कि उसमें खुद का विस्तारित रूप देखते हैं। अभिजात लोगों के साथ रहने से दबाव का स्तर बढ़ता है। हम जब अभिजात दबाव के के बारे में विचार करते हैं तो यह अभिजातीय दबाव न केवल क्लासरूम से पड़ता है बल्कि टीवी पर दिखाए जाने वाले अवास्तविक और कभी-कभी बेवकूफी भरे विज्ञापन देखकर भी उत्पन्न होता है। एक सांस्कृतिक संभ्रम की स्थिति शहरों में फैल रही है जहां माता-पिता की अपेक्षा होती है कि उनके बच्चे पश्चिम के सांस्कृतिक वातावरण और पूर्व के नैतिक मूल्यों से ओतप्रोत हों। निस्संदेह, दबाव जीवन का एक अपरिहार्य पहलू है और वास्तव में इसका कुछ हिस्सा प्रेरणा प्रदान करता है लेकिन ज्यादा स्तर के दबाव से 'आउटपुट' पर असर पड़ता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का कारण बनता है। चिकित्सकों का वर्ग दबाव को जीवनशैली से जुड़ी बीमारी मानता है। इसके अलावा बच्चों में मनोवैज्ञानिक जनित समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। इनमें उदासी, अवसाद, पलायनवाद, हाइपरवेंटीलेशन, सिरदर्द आदि से जुड़ी बीमारियां हैं और यह आत्महत्या की तरफ झुकाव को बढ़ाने वाला होता है।  
'शिक्षक-शिक्षण' सम्बन्ध भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, अध्यापक इंस्ट्रक्टर (उपदेशक) हो गए हैं और वे पढ़ाने के बजाए कोचिंग में रूचि ले रहे हैं। इसमें युवाओं को ज्ञान देना और उनमें विश्वास  उत्प्रेरण के स्थान पर व्यक्तित्व विकास की शिक्षा देना भी शामिल है। गुरू की परिभाषा की समुचित रूप में इस प्रकार व्याख्या की गई है-'गु' यानी कि अज्ञानता और 'रू' यानी अज्ञानता को नष्ट करने वाला। बहुत ही अल्प अवधि में कोचिंग इंस्टीट्यूट्स और व्यापारिक शैक्षणिक संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ी है। शिक्षा के अधिकार के जमाने में इन्हें अपना रवैया बदलने और बदलाव लाने की जरूरत है। शिक्षा, प्रवीणता और दक्षता देने के लिए उन्हें अपने उद्देश्य को प्राथमिकता पर रखना होगा। इससे इन संस्थाओं के संचालक सिर्फ मालामाल होने की अपेक्षा स्वास्थ्य व समृद्धता के भी हितकारी बनेंगे। 
   व्यक्ति के जीवन में किशोरवय की अवधि सर्वाधिक दबाव का काल होती है। वे तरूणाई के दौर से गुजर रहे होते हैं, दूसरे की उम्मीदों की चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं और उन्हें जो नया लगता है, उसकी नकल कर रहे होते हैं। करियर सम्बन्धी कोई भी निर्णय उन पर थोपना नहीं चाहिए, बल्कि उनकी योग्यता और इच्छा को भी ध्यान में रखना चाहिए। उन्हें यह अहसास कराना जाना चाहिए कि उन्हें प्यार किया जाता है और वे समाज के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। इससे उनका दबाव कम हो सकता है। उनकी छोटी-मोटी अवज्ञाओं को नजरअंदाज करना चाहिए और उन्हें महसूस कराना चाहिए कि वे उच्च क्षमताओं से सम्पन्न हैं।  छोटी उपलब्धियों को भी भरपूर तरजीह दी जानी चाहिए, विफलता पर प्रोत्साहक रवैया अपनाना चाहिए। प्रोत्साहक गतिविधियों से उनमें आनन्द का संचार होता है। दबाव कम करने की दिशा में यह प्रभावकारी उपाय है। माता-पिता को सबसे पहले खुद का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। 
 मुख्य बात यह समझने योग्य है कि बच्चा एक व्यक्तिगत इकाई है और उसके अपने अधिकार हैं। उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि वे महत्वपूर्ण हैं। उन्हें सुरक्षित, मजबूत, घरेलू और विश्वसनीय वातावरण व घर उपलब्ध कराना चाहिए।   

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