Monday, January 31, 2011

जी.पी.एम. की केंटीन

जी.पी.एम. मतलब गेंद प्रसाद मिश्रा की केंटीन...केंटीन काफी पुरानी है,बाहर लगी रेटलिस्ट को पढ़कर समझा जा सकता है...बिलासपुर के उसलापुर रेलवे स्टेशन के भीतर गेंद प्रसाद मिश्रा की लाइसेंसी केंटीन के बाहर लगे टिन के बोर्ड को देखकर लगा पुराने ज़माने या यूँ कहें की पुराने खयालात के लोग आज भी चकाचौंध से कोसो दूर है...तभी तो मिश्रा जी की दूकान पर एक टीन के टुकड़े पर सफ़ेद-काले पेंट से लिखा है समोसा ४ रुपया,प्याजी बड़ा ३ रुपया,चाय ३ रूपया और वगैरह-वगैरह .....उसलापुर की रेलवे केन्टीन या यू कह दूँ की मिश्रा जी की दूकान से ज्यादा प्रभावी मुझे बाहर लगी रेटलिस्ट लगी...ग्लो साइन,फलेक्स के जमाने में टीन पर हाथ से लिखी रेट लिस्ट,दूसरे उस रेटलिस्ट का महंगाई की मार से प्रभावित ना होना मुझे ज्यादा प्रभावी कर गया...मिश्रा जी की दूकान पर लगी रेटलिस्ट के मुताबिक़ नमकीन ८० रुपये किलो है...बाजार में ८० रुपये किलो में बेसन नही मिल रहा है और मिश्रा जी उससे कम दाम में नमकीन बेच रहे है...नमकीन कैसी है मै नही जानता क्योंकि कभी खाने का मौक़ा नही लगा...इस महंगाई में जिस प्याज का छिलका भी स्टेटस सिम्बल माना जाता हो वैसे में मिश्रा जी प्याजी बड़ा ३ रुपये नग में बेचकर अर्थ शास्त्रियों के लिए चुनौती खड़ी कर रहे है....सबसे मजे की बात ये की ३ रुपये में पूरे ५० ग्राम वजन का प्याजी बड़ा...समोसा उतने ही वजन का कुछ महंगा है...चार रुपये देकर ५० ग्राम वजनी समोसा...है ना कमाल ...इससे बड़ा कमाल तो ये की वजन अन्दाजी है और माल भी....मतलब समोसे को तौल कर बेचा जा रहा हो ऐसा नही है...पंडित जी ने अपने जमाने में कही देखा-सूना होगा की कीमत के बगल में वजन लिखना जरुरी है सो लिख दिया...वैसे सरकारी नियम वजन लिखने को कहता है...जब मै केन्टीन के बाहर की तस्वीर खीच रहा था तो मिश्रा जी भीतर मटमैले रंग के एक बर्तन में शायद मैदा गूथ रहे थे समोसा बनाने के पहले की मशककत जारी थी ...रेलवे की मेहरबानी कहे या अधिकारियों की कामचोरी जो लोगो को सहूलियत देने से बच रहे है...केन्टीन को जब लाइसेंस लेकर खोला गया तब वक्त कुछ और था आज ज़माना कुछ और ....अरे अब तो स्टेशन की सूरत भी बदलते वक्त के साथ बदल गई ऐसे में मिश्रा जी का ५० ग्राम वजन वाला ३रुपया में प्याजी बड़ा,४ रूपये वाला समोसा कितना मसालेदार और लजीज होगा कम से कम मै तो अंदाज लगा ही चूका हूँ...
                                                      चाय,काफी और पानी की आड़ में मिश्रा जी पान-गुटका,सिगरेट भी धडल्ले से बेच लेते है...इसके अलावा भी कुछ होगा तो मैंने नही देखा...कानून कहता है सिगरेट,पान मसाला जैसी चीजे रेलवे स्टेशन पर बेचना जुर्म है पर मिश्रा जी तो लाइसेंसी है फिर उन्हें किस बात का डर....? कानून जो बेचने की इजाजत देता है...या फिर जिसको बेचने का लाइसेंस रेलवे ने दिया है वो सब का जिक्र तो टीन के बोर्ड पर है ही...फिर सब कुछ लिखकर भी तो नही बेचा जाता...कई चीजे है जो छिपाकर ही बेचीं जाती है और मिश्रा जी ५० ग्राम-१०० ग्राम की आड़ में शायद वही सब बेच कर घी भी पी रहे है और कथरी ओढने का ढोंग भी कर रहे है....खैर मुझे जिस टीन के महंगाई मुक्त रेट लिस्ट से मतलब था उसे मै इस पोस्ट पर लगा कर आप से ही पूछता हूँ क्या मिश्रा जी वाजिब दाम में वाजिब चीजे बेच रहे है....?

Thursday, January 27, 2011

मिडिया और बिनायक


  गरीब, आदिवासी, मजलूमों के मोबाईल डाक्टर, डा.बिनायक सेन को ताजिंदगी जेल में रखे जाने की सज़ा मुकर्रर की गयी है. फैसले के बाद सब गंभीरतम चर्चाओं में मशगूल हैं. दोषी और उनकी भूमिकाओं की पडताल जारी है. लोकतांत्रिक ढांचे के तीनों खंभे न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका इसकी जद में हैं. पर चौथा, जो सबसे शातिर है और इस साजिश में बराबर का हिस्सेदार भी, अब तक इन चर्चाओं से बाहर है. इसने बडी चतुराई से उन अज्ञात षड्यंत्रकारियों की भूमिका अख्तियार कर लिया है जो उजाले में स्यापा के दौरान सबसे जोरदार रूदन पसारते हैं. यह स्थानीय मीडिया है, यानी छत्तीसगढ की मीडिया.

आज की तारीख में भले ही देश के कमोबेश हर हिस्से का मीडिया डा.बिनायक सेन के आजीवन कारावास की सज़ा पर अवाक नजर आ रहा हो, पर राज्य मशीनरी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले छत्तीसगढ की मीडिया ने डा.बिनायक सेन को लेकर प्रारंभिक दौर में ही प्रोपगैंडा का एक जबर्दस्त अभियान छेड रखा था. उस दौरान लगभग खबरें पूर्वाग्रह और प्रोपगैंडा से प्रेरित थीं. क्या पत्रकार, क्या संपादक सब के सब डा.सेन के मीडिया ट्रायल में मुब्तिला थे. पत्रकार तिहरी भूमिकाएं निभा रहे थे. वे पत्रकार भी थे, पुलिस भी और जज भी. खबरों के लिये पुलिसिया स्रोत ही पहली और आखिरी स्रोत था. थाने से निकला वक्तव्य सारे सत्यों से ऊपर था. आरोपी को अपराधी लिखने-साबित करने की होड सी मची थी. मामला ठीक से अदालत भी नहीं पहुंच पाया था कि मीडिया ने अपना एकतरफा फैसला सुना दिया था और डा.बिनायक सेन रातों-रात चिकित्सक से खूंख्वार हो गये थे.

१४ मई २००७ को डा.सेन के गिरफ्तारी के बाद से ही स्थानीय मीडिया प्रोपगैंडा के सुनियोजित काम में लग गया था. १५ मई २००७ को स्थानीय अखबारों ने मोटे-मोटे शिर्षक के साथ खबर लगायी, ‘ पुलिस के हत्थे चढा नक्सली डाकिया’. इसी दिन स्थानीय अखबार हरिभूमि ने लिखा, ‘जिस नक्सली डकिये की तलाश में रायपुर पुलिस दिन-रात जुटी थी, उसे मुखबिर की सूचना पर तारबाहर पुलिस को पकडने में सफलता हासिल हुयी है. बिनायक सेन नामक इस व्यक्ति की तलाश रायपुर पुलिस को ६ मई से थी. माना जा रहा है कि वह जेल में बंद और शहर में गोपनीय रूप से रह रहे नक्सलियों का पत्र वाहक था. उनकी सूचनाओं को बस्तर और दूसरी जगहों में तैनात खूंखार नक्सलियों तक पहुंचाने के लिये इसने अपना अलग तंत्र तैयार कर रखा था. घेराबंदी कर नक्सलियों के इस प्रमुख डाकिए को पुलिस ने धर दबोचा. शुरु से ही यह आशंका थी कि नक्सलियों का ये प्रमुख डाकिया बिलासपुर जिले में कहीं छिपा हुआ है.’ 

इस खबर के बीच में ही उपशीर्षक देकर एक और खबर थी, ‘ नक्सली देखने थाने में लगी भीड’- ‘तारबाहर पुलिस के हत्थे चढने के बाद बिनायक सेन की नक्सलियों के प्रमुख डाकिये के रूप में पहचान हुई. यह खबर पूरे शहर में फैल गई. तारबाहर थाना में नक्सली डाकिये को देखने के लिये लोगों की भीड एकत्र हो गई. लोग उसकी एक झलक पाने के लिये काफी समय तक खडे रहे.’

ऐसी तमाम खबरों में डा.बिनायक सेन के लिये हर जगह ‘नक्सली डाकिया’, ‘नक्सली मैसेंजर’, ‘नक्सली हरकारा’ जैसे विशेषण ही इस्तेमाल किये गये. खबर की भाषा और लहजे को ऐसे बरता गया, मानों गिरफ्तार किये गये शख्स की सार्वजनिक पहचान से सारे अखबार अनजान हों. कई शीर्षकों में बस ‘बिनायक सेन’ भर लिखा गया, ‘बिनायक सेन की पुलिस को तलाश’ या ‘बिनायक सेन गिरफ्तार’. उनके नाम के आगे न ‘डाक्टर’ था, न ‘मानवाधिकार कार्यकर्ता’. एक अपरिचित पाठक के लिये बिनायक सेन का मतलब चोर, बलात्कारी, चाकूबाज कुछ भी हो सकता है. पूरे दो हफ्ते तक डा. बिनायक सेन की चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता की पहचान सुनियोजित तरीके से छिपाई गई.

ह कितनी भारी विडंबना है कि १५ मई २००७ से पहले तक डा.बिनायक सेन को उनकी समाजसेवा और मानवाधिकारों के लिये निर्भिकतापूर्वक संघर्ष के लिये स्थानीय मीडिया में कोई जगह नहीं मिली, और जब उन्हें दुर्भावनावश गिरफ्तार कर लिया गया तो स्थानीय मीडिया इस मामले को लेकर अचानक इस तरह से सामने आया जैसे उसने डा.सेन के नक्सली होने की पूरी पडताल पहले से ही कर रखी हो. यह वाकई अप्रत्याशित था कि विगत तीन दशकों की उनकी सार्वजनिक पहचान का उल्लेख किये बगैर उनपर खबरें लिखी जा रही थीं. खबरों के शीर्षक को अस्पष्ट रखा जा रहा था. और यह सब सचेतन किया जा रहा था.

कई अखबार इनकी गिरफ्तारी के पहले से ही पीयूष गुहा (१ मई २००७ को पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यवसायी) के लिये ‘नक्सली मैसेंजर’ लिख रहे थे. बाद में यही विशेषण डा.सेन के लिये भी प्रयोग किया जाने लगा. ‘छत्तीसगढ’ अखबार १० मई २००७ को लिखा कि बिनायक सेन के खिलाफ पुलिस को राजधानी में नक्सली गतिविधियां संचालित करने की बहुत ठोस जानकारी मिली है. इसी तरह अगले दिन ‘हरिभूमि’ भी पुलिसिया रिपोर्ट के आधार पर यह घोषणा करने में जुटा था कि पीयूसीएल के नेता नक्सली मैसेंजर से मिले हुए हैं. ये अखबार छत्तीसगढ पुलिस के नक्शेकदम पर चल रहे थे. क्योंकि जेल में दस्तावेजों में डा. बिनायक सेन को हार्डकोर नक्सली दर्ज किया गया था. हालांकि तब कई संगठनों ने इसका विरोध किया था कि न्याययिक फैसलों के पूर्व इस तरह के दुष्प्रचार सर्वथा अनुचित हैं.

स्थानीय अखबारों में प्रोपगैंडायुक्त खबरों का सिलसिला चल पडा था. संबंधित हर खबर का ‘फालोअप’ लिखा जाता था. यह अदालती ट्रायल के पहले का ट्रायल था, जिसकी बुनियाद पूर्वाग्रह, भ्रम, दुष्प्रचार और तथ्यहीनता पर केंद्रित थी. प्रोपगैंडा का अभियान चलाने वाले अखबारों में बडे समझे जाने वाले नाम भी शामिल थे. १७ मई २००७ को ‘नई दुनिया’ लिखता है- ‘नक्सली सूची में कई बडे लोग.’ यह खबर किसी कोण से तथ्यात्मक नहीं थी बल्कि एक मुहिम का हिस्सा थी. आगे ३ जून को इसी अखबार ने लिखा, ‘एनजीओ की दो युवतियां लापता.’ यह डा.सेन की छवि को ध्वस्त करने की एक और कोशिश थी. पुलिस ने इसे जबर्दस्ती एक गंभीर मामला बताया था और कहा था कि इस आधार पर इलिना सेन के खिलाफ भी जुर्म साबित किया जा सकता है. गौरतलब है कि जिस एनजीओ (रूपांतर) में काम करने के लिये दोनों लडकियां दिल्ली गयी थीं, उसे इलिना सेन चलाती थी. और तथ्य यह है कि दोनों लडकियों को जिन्हें लापता बताया जा रहा था, वे बालिग थीं. और यदि वे रूपांतर छोडकर कहीं अन्य जगह चली गयीं थीं तो यह सर्वथा उनका फैसला था. पर इस खबर को जिस तरीके से बिनायक सेन और उनके परिवार के खिलाफ गढा गया, वह शर्तिया दुराग्रहपूर्ण और प्रोपगैंडा का हिस्सा था.

१७ मई को ही ‘हरिभूमि’ की खबर थी-‘नक्सली समर्थकों की खैर नहीं’. इसमें खबर जैसा कुछ भी नहीं था. बस बातें बनाकर माहौल को गर्म बनाए रखने की एक कवायद भर थी. खबर के भीतर एक कहानी थी, जिसमें सलवा जुडूम के शुरुआत को उस दिन से माना गया था, जब २००५ में बस्तर में भगवान गणेश की मूर्ति को नक्सलियों ने तोडा-फोडा था और गणेश बिठाने का विरोध कर हिंदू धर्म पर हमला बोला था और अपने खिलाफ स्वंय ही माहौल तैयार कर लिया था.’ सलवा जुडूम की स्थापना की यह एक हास्यास्पद कथा थी. खबर में आगे सफेदपोश नक्सलियों पर ‘राजसुका’ के तहत कार्रवाई की बात कही गयी थी. यानी अखबार भी साफ तौर पर अपना यह मत जाहिर कर रहा था कि डा.सेन पर ‘राजसुका’ के तहत राजद्रोह लगे. इससे स्थानीय अखबारों की मंशा समझी जा सकती है और इनके द्वारा निष्पक्षता बरते जाने की संभावना की प्रतिशतता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.

इसी तरह ९ जुलाई २००७ को ‘दैनिक भास्कर’ ने लिखा- ‘धर्मांतरण के आरोप में युवकों की पिटाई’. यह खबर भी सीधे तौर पर प्रोपगैंडा के तहत ‘प्लांट’ किया गया था. इस खबर में लिखा गया था कि डा.बिनायक सेन अपने प्रभाव वाले गांवों में धर्मांतरण करवा रहे थे. इसके लिये उन्होंने कई युवकों को पैसे दिये थे. साथ ही बगरूमनाला में क्लीनिक चलाने के पीछे भी धर्मांतरण ही इनका मुख्य मकसद था. इस कार्य में संलग्न लोग उनसे जुडे हुए हैं. लगातार विभिन्न ग्रामों में इलाज, तालाब, खुदाई एवं पैसे का लालच ग्रामिणों को दिया जाता है. इस बेबुनियाद खबर की कोई सीमा नहीं थी. जाहिर है, इस खबर को डा.बिनायक सेन के चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता वाली छवि को खंडित करने के लिये प्रकाशित किया गया था.

प्रोपगैंडा की इसी कडी में ‘नवभारत’ ने ३ अगस्त २००७ को खबर बनायी-‘बस्तर में बिजली टावरों को उडाने का षड्यंत्र सान्याल ने जेल में रचा’. इस खबर के बीच में एक पासपोर्ट साईज तस्वीर डा.बिनायक सेन की लगी थी. इस खबर में उपरोक्त शीर्षक से संबंधित केवल एक पंक्ति लिखी गयी, शेष लगभग चार कालमों वाले इस खबर में पूरी बात डा.सेन पर केंद्रित थी जिसमें लिखा गया था कि डा.सेन और श्रीमती सेन नक्सलियों से मिले हुए हैं. उनके बीच इनका सक्रिय घुसपैठ है. खबर में डा.सेन के चिकित्सक होने को भी झूठलाया गया था. खबर के बीच में उनकी तस्वीर कुछ इस प्रकार चस्पां की गयी थी जैसे टावर डा.सेन ने ही उडाया हो. यानी कि शीर्षक कुछ, खबर कुछ और तस्वीर कुछ.

स्थानीय अखबार शुरू में डा.सेन को फरार और भगोडा तक घोषित कर चुके थे. जबकि वे कोलकाता के पास कल्याण में अपनी मां से मिलने, बच्चों के साथ गये हुए थे. उन्हें मित्रों से यह जानकारी मिली कि पुलिस के साथ-साथ मीडिया भी उन्हें फरार बता रही है. इसपर उन्होंने फौरन अखबारों से सम्पर्क कर अपनी स्थिति स्पष्ट की थी. अपना मोबाईल नं. भी प्रकाशित करवाया था कि जिन्हें कोई शंका हो, वो बात कर लें.

इस किस्म की खबरों से स्थानीय अखबारों की मंशा साफ जाहिर होती है कि किस तरह डा.बिनायक सेन के खिलाफ शुरूआती दौर से ही माहौल बनाया जा रहा था. ‘हरिभूमि’ अपनी खबरों में एक कदम आगे बढकर यह माहौल तैयार कर रहा था कि इलिना सेन को भी गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए क्योंकि ये सारे जनवादी खतरनाक हैं.

स्थानीय मीडिया की भूमिका पर डा.बिनायक सेन ने भी सवाल उठाया था. स्थानीय मीडिया खासकर अखबार वाले राज्य सरकार से वफादारी निभाने के लिये किसी ऐसे ही मौके की तलाश में थे. और उनका यह रवैया केवल इस मामले में ही नहीं बल्कि इस किस्म के सभी मामलों में स्थायी रूप धर चुका है. जनआंदोलनों, मानवाधिकारों के लिये संघर्ष के प्रति स्थानीय अखबार न केवल उदासीन रहते हैं, बल्कि कई दफा इनके विरुद्ध जाकर बेहद आक्रामक रूख भी अपना लेते हैं. लोकतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता की सेहत के लिये यह कतई चिंतनीय है.

पुलिस और सरकार के लिये किसी भी व्यक्ति को अपराधी घोषित करना बेहद आसान होता है. इस प्रक्रिया में यदि मीडिया की पर्याप्त मिलीभगत हो तो मनमाफिक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं. डा.बिनायक सेन के केस में पुलिस और सरकार ने मीडिया की सहायता से यही काम किया. प्रोपगैंडा के लिये ऐसी आधारहीन खबरें ‘प्लांट’ की गयीं, जिससे डा.बिनायक सेन के व्यक्तित्व, छवि और सार्वजनिक कार्यों को न केवल जबर्दस्त क्षति पहुंचे, बल्कि उन्हें सीधे तौर पर नक्सली साबित कर न्यायालय पर भी पर्याप्त दवाब बनाया जा सके. और आज साढे तीन साल बाद जब डा.सेन को आजीवन कारावास की सजा अदालत ने सुनायी है तो इसे राज्य सरकार, पुलिस और वहां की ब्यूरोक्रेसी के षड्यंत्र के साथ-साथ स्थानीय मीडिया के ट्रायल, प्रोपगैंडा और उसके पूर्वाग्रह के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए. और जहां तक न्यायालय की भूमिका का सवाल है, अदालतें राजनीतिक समीकरणों और मीडियाई प्रभाव से निरपेक्ष नहीं होती हैं..... {आभार-नई बात }

Sunday, January 23, 2011

मौत पर स्यापा...

पत्रकार स्वर्गीय सुशील पाठक की मौत के बहाने काफी कुछ कहा और सुना जा रहा है...हत्या के बाद पुलिस कातिलो और कत्ल में प्रयुक्त हथियार की तलाश एक महीने बाद तक नही कर सकी है...पुलिस की जांच कई दिशाओ में हुई लेकिन अहम् सुराग हाथ नही लगे...कोशिशे जारी है और पत्रकार भी पुलिस की जांच रिपोर्ट आने का इन्तेजार कर रहे है...इन सब के बीच सुशील की मौत पर स्यापा जारी है...मौत पर राजनीती या फिर राजनीती के लिए मौत का बहाना तलाशने वालो के कंठ इन दिनों कुछ ज्यादा मुखर है...पत्रकार की मौत पर कुछ पत्रकार ही ज्यादा लिख और बोल रहे है...जो जिन्दा इंसान{पत्रकार}के मुँह पर कुछ नही बोल सके वो मौत के बाद सुशील की व्यक्तिगत जिन्दगी के पन्नो को खंगाल रहे है...जो बोल रहे है ओ इशारो की भाषा समझते है...एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपनी वेब साइड पर सुशील की मौत और कत्ल से जुड़े कई मामलो को लिखा,उस लेख के आखिरी में प्रेस क्लब के सचिव और पत्रकार स्वर्गीय सुशील पाठक को श्रधांजलि भी दी गई...इसे पढने वाले कुछ कथित पत्रकारों ने अपना मत भी व्यक्त  किया...एक ने तो लिख दिया की सुशील की मौत का कफ़न १९९८ में ही तय हो गया था...मतलब वो कथित पत्रकार जानता है की क़त्ल क्यों और किसने किया है...? क्योंकि जितने आत्मविश्वास से लिखा गया है वो पुलिस को क़त्ल की गुथी सुलझाने की दिशा में काफी हद तक मदद कर सकता है...पुलिस ने बात सामने आने पर उस कथित कलमकार को थाने ले जाकर पूछताछ की है,जरुरत पड़ने पर और पूछताछ की जाएगी...सवाल ये खड़ा होता है की क्या उन लोगो को सुशील के क़त्ल से जुड़े अहम् तार का पता तो नही है..? क्या ये लोग जानते है की सुशील की हत्या किसने और  क्यों की है ? क्योंकि जितना इन लोगो ने कहा है या एस.एम्.एस के जरिये कह रहे है उससे जाहिर है उन्हें काफी कुछ पता है...पत्रकारिता की आड़ में राजनीतिक बिसात पर शह-मात का खेल खेलने वालो ने मौत को जरिया बनाया ये ज्यादा दुःख की बात है...अरे मौत पर स्यापा करने वाले वो लोग है जिन्हें सुशील को श्रधांजलि देने का वक्त तक नही मिला, ये वही लोग है जिन्हें धरना स्थल पर आकर बैठने में शर्म महसूस हुई...जब शहर का आवाम,पत्रकार कातिलो को गिरफ्तार करने और अमन-चैन के लिए नेहरू चौक पर गला फाड़ रहा था तो ये कथित पत्रकार कहाँ थे...? अरे सुशील की मौत के बहाने स्यापा करने वालो... कुछ तो सोचा होता,लोग क्या कहेंगे....? जिनके दामन कई दागो से रंगे है ओ दुसरो के दाग खोजने निकले है...जो कहीं और कुछ नही है वो कमेंट्स के जरिये अपनी नीयत,नापाक इरादों को सार्वजनिक कर रहे है...खैर मुझे इस बात से बहुत ज्यादा इत्तेफाक नही है की वो लोग क्या कर रहे है क्योंकि जो कुछ नही है उनके बारे में सोच कर क्यों अपना वक्त जाया करूँ...मुझे कुछ कहने या लिखने की जरुरत सिर्फ इसलिए महसूस हुई क्योंकि अब तो लोग मौत पर भी तमाशा खड़ा किये हुए है...                                       "गिलहरी और अखरोट के किस्से, कहीं स्वारी "सुशील" और ना जाने क्या-क्या....
......"एक सियार को कहीं से अखरोट की थैला मिल गया|उसने गिलहरियों से कहा-कि तुम लोग यदि मेरी सेवा करोगे तो तुम्हे मैं अखरोट से भरा ये थैला दे दूंगा|गिलहरियां मन लगा कर सियार की सेवा करने लगीं|इस उमीद में साल दर साल बीतते गये| जब गिलहरियां बुढ्ढीं हो गईं तो  सियार ने अखरोट का थैला उन्हे दिया|लेकिन तब तक गिलहरियों के दांत टूट चूके थे|
यह कहानी छतीसगढ के बिलासपुर के एक पत्रकार ने सुनी और कहा- अच्छा तो गिलहरियां हम हैं और प्रेस क्लब गृह निर्माण समिति के प्लाट अखरोट हैं तो फिर सियार....? सारी सुशील"....
                                                                                          इन किस्से कहानियो.एस.एम्.एस को कुछ ख़ास लोग मोबाईल के जरिये फैला रहे है...उन लोगो को अभी गिलहरी और अखरोट में खूब मजा आ रहा है...हंसी-ख़ुशी के बीच सुशील की मौत पर दंगल लड़ने वालो की जमात अलग भी है और काफी कमजोर भी तभी तो मौत के बहाने स्यापा करने वाले जानबूझकर वो हरकत कर रहे है जो मानवीयता को शोभा नही देती.... 

Sunday, January 16, 2011

विकास,विश्वास और...

 दस बरस की उम्र पूरी कर चूका छत्तीसगढ़ ११ वें बरस में कदम रख चुका है...दस बरस में दो सरकार,पहले कांग्रेस फिर भाजपा...तीन साल कांग्रेस ने खूब विकास किया,रातो-रात लोगो की शक्लो-सूरत बदल गई हालांकि उस विकास की रफ़्तार ने नए राज्य में सत्ता परिवर्तन कर दिया,जनता ने भाजपा को मौक़ा दे दिया...पिछले ७ बरस से भाजपा विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर है...गरीबो की हितैषी बनी सरकार ने १ रुपये,२रुपये किलो में राशन देकर लोगो का पेट इतना भर देने का दावा किया की लोग रोजगार के लिए खोजे नही मिल रहे...हाँ ये बात अलग है की गरीबो का राशन बिचौलियों के जरिये बाजार में बेच दिया गया...
          पिछले ७ बरस में "क्रेडिबल"यानि विश्वसनीय छत्तीसगढ़ बना ये राज्य ना जाने किस दृष्टिकोण से विश्वसनीयता के माप
 दंड पर खरा उतरता है...शायद शहरों की सड़के चौड़ी करके या फिर बड़े उद्योग पतियों को और धनवान बनाकर डॉक्टर {रमन}साहेब खुश है...कहीं इस राज्य के मुखिया को ये तो नही लगता गरीबो को मुफ्त में चावल देकर वो विकास की मुख्यधारा से जोड़ चुके है...चका-चक सड़के,सरकारी दफ्तरों की चमचमाती दीवारे और कुछ लोगो की विकास से लबरेज सूरत भले ही भाजपा सरकार को विश्वसनीयता की श्रेणी में लाकर खड़ा करती हो लेकिन विकास की असल सूरत आज भी उतनी ही दरिद्रता और बुनियादी जरुरतो की मोहताज नजर आती है...गांवो में भारत बसता है,ये बाते अक्सर हमने सफेदपोशो की जुबान से सुनी है...अक्सर जनता-जनार्दन को बातो के मकडजाल में फ़साने वालो को गांवो के विकास का ख़ास ख़याल नही होता...कुछ तस्वीरे बहुत कुछ कहने के लिए काफी है...स्कूल की यूनिफार्म पहने कुछ बच्चे मुझे शहर से केवल १८ वें किलोमीटर में ही इस हाल में नजर आ गए...
                                                                           विकास की सूरत कितनी काली है इसका अंदाजा आप तस्वीर को 
 देखकर लगा सकते है...राज्य की राजधानी को जाती इस सड़क पर १८ वें किलोमीटर पर ग्राम हिर्री में मौत से खिलवाड़ करती जिन्दगी को देखकर मै तो दांग रह गया...मै सोचने लगा की विकास की रफ़्तार आखिर कितनी तेज है कि लोग अब तो मौत को भी चैलेन्ज करने से नही डरते...नेशनल हाइवे २०० पर मौत से छेड़छाड़ करती जिन्दगी राजधानी जाकर विकास की फिर नई इबारत लिखेगी मै यकीन से कह सकता हूँ....नेशनल हाइवे २०० पर चलने वाली कोयले से लदी ट्रको से गिरा कुछ चूरा और मलबा इन गरीबो के जरुरत की चीज है...इसे सड़क से बीनकर घर ले जाने की जद्दोजहद में जान भी जा सकती है लेकिन क्या करे पेट की आग तो तभी बुझेगी जब चूल्हा जलेगा...क्योंकि सरकार ने पेट भरने के लिए चावल,गेंहूँ तो उपलब्ध करवा दिया लेकिन उसे पकाने की व्यवस्था नही की...अब लोग करें तो करें क्या...?  
                              
                                 मौत से खेलती जिन्दगी हर गम से बेगानी नजर आती है...तभी तो पूरा का पूरा परिवार विकास और विश्वसनीयता की पहचान बने छत्तीसगढ़  की राजधानी को जाने वाले एन.एच.२०० पर खतरों से खेल रहा है...विकास की ये दूसरी सूरत हर दिन एन.एच.२०० पर दिखाई पड़ती है...जिले का दबदबा सरकार में है..ऐसा मैं नही कह रहा लोगो की जुबानी सुना है...विधानसभा अध्यक्ष,खाद्य मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री तो ऊँगली पर गिने जा सकते  है...बाकी तो बहुत सारे है जो सरकार में तुर्रमखां होने का दंभ भरते है...वैसे जितने मंत्री-संत्री और तुर्रमखां की बात मै कह रहा हूँ वो सारे के सारे इस तस्वीर को पिछले सात बरस से देख रहे है...उन्होंने कभी इस तस्वीर को बदलने की कोशिश नही की,दरअसल बेशर्म आँखों के सामने सरकार की लालबत्ती वाली एम्बेसेडर कार का काला शीशा जो होता है....ऊपर लगी लालबत्ती और फालोगार्ड के इशारे पर फर्राटे भरती सरकारी गाड़ी में बैठे नेताजी की आँखों को विकास की असल सूरत तो मंत्रालय और सरकारी बंगले के आस-पास ही नजर आती  है...
                                               सरकार विश्वसनीय छत्तीसगढ़ की पहचान का लाबाद ओढ़े शहरों में घूम रही है...शहरों की बदली सूरत,पूंजीपतियों का बढ़ता कारोबार और सरकार के इर्द-गिर्द दीमक की तरह गरीबो का हक़ बटोरते दलाल विकास के सही मायने है...इनका विकास मतलब सरकार का विकास,गरीबो का क्या है वो तो आजादी के बाद से ही विकास की बाट जोह रहे है...फिर मौत एन.एच.२०० पर कोयला बीनते आये या फिर कचरे के ढेर में गन्दगी के संक्रमण से.....................                                            

Sunday, January 9, 2011

शिक्षा का रंग कितना बेरंग


तस्वीर नई है लेकिन सच पुराना है...ये वो हकीकत है जिसको अक्सर सरकार 
और सरकारी नौकर दोनों मानने से साफ इनकार कर देते है...सरकारी स्कूलों 
में शिक्षा व्यवस्था का हाल कैसा है,सोचता हूँ बताने की जरुरत नही है...शहर और गांवो की सरकारी स्कूलों के पट खुलते है,अच्छी-खासी तन्खवाह लेने वाले शिक्षक मनमर्जी के मालिक होते है...स्कूल पहुंचकर शिक्षक बच्चो को पढ़ाने के अलावा सभी काम बड़ी ही ईमानदारी से करते है...नतीजतन बच्चे स्कूल आकर मध्यान्ह भोजन का इन्तजार करते है...अधिकांश स्कूलों में नजारा कुछ ऐसा ही होता है जैसा सच तस्वीर कह रही है...यानि बच्चे स्कूल आकर सबसे पहले साफ़-सफाई करते है,इसके बाद सरकारी भोजन को बनाकर पेट भरने का क्रम शुरू होता है..बच्चो की दर्ज संख्या के अनुपात में सरकारी अनाज बोरे से बाहर निकाला जाता है...करीब-करीब हर स्कूल में गैर-हाजिर बच्चे के नाम से भी राशन पकता है....जो काम स्वयं-सहायता समूहों को दिया गया वो काम भी बच्चे करते है...सब्जी काटने से लेकर पका भोजन परोसने तक का काम बच्चे करते है....बस्ते में रखी सरकारी पुस्तके किसी कोने में पड़ी होती है...भोजन बनते ही उन बस्तों से पुस्तको के बीच रखी थाली बाहर निकाल ली जाती है...अधपका खाना पेट में जाते ही बच्चो के मुह से बहाने उलटी करने लगते है...मतलब भोजन ख़त्म,पढाई ख़त्म...इन तमाम बातो से स्कूल के गुरूजी को कोई फर्क नही पड़ता,पड़े भी क्यों...गुरूजी पढ़ाने की नही स्कूल आने की एवज में सरकार से मोटी रकम लेते है...क्योंकि उन्हें या उस विभाग से जुड़े किस भी आदमी को शर्म होती तो तस्वीर ऐसी नही कुछ और ही कहानी बयाँ करती...सवाल तो शर्म पर आकर ही दम तोड़ देता है...क्योकि अब बेशर्मो की भीड़ में पानीदार व्यक्ति की तलाश करना बड़ा मुश्किल काम है....जो बच्चे तकदीर गढ़ने स्कूल आते है वो काम पर लगा दिए जाते है,काम चाहे झाड़ू लगाने का हो या फिर खाना पकाने का....करीब डेढ़ महीने बाद परीक्षाये शुरू हो जाएँगी,गुरूजी के काम में जो टॉप पर होगा उसकी मार्कशीट में उतने ही अधिक नंबर होंगे...सरकारी स्कूल है,सरकार को स्कूल के परीक्षा परिणाम से मतलब है और परिणाम गुरूजी के हाथ में है....ऐसे में तस्वीर के बदलने की उम्मीद बेईमानी सी लगती है....
                                   मैंने शहर और आस-पास के कई स्कूलों की बदहाली और उससे जूझते बच्चो को देखा है....वो बदहाली जिले के अधिकारियो को दिखाई पड़ती है लेकिन उसे ठीक करने की कोशिशे धरातल पर साकार होती कम ही नजर आती है....छत्तीसगढ़ सरकार वैसे तो कई मायनो में संवेदनशील है,जिले का मुखिया यानि कलेक्टर पिछले दो बरस से पेड़-पौधे लगवा रहा है...हरा-भरा जिला,ये सोच कलेक्टर सोनमणि बोरा की कवर्धा में भी देखने को मिली थी....सारे पौधे सुख गए,हाँ लिम्का बुक में साहेब का नाम जरुर दर्ज हो गया...कुछ वैसी ही कोशिशे बिलासपुर जिले में जारी है....साहेब को इससे ज्यादा इतेफाक नही की सरकारी स्कूलों में शिक्षा का क्या हाल है..? विभाग का अधिकारी है वो कुछ करने को तैयार नही है...ऐसे में सरकार स्कूल की बच्चियो को चाहे साइकिले बाँट ले या फिर मुफ्त में शिक्षा दे....जब तक जमीनी व्यवस्था नही सुधरेगी तब तक सरकार की तमाम कोशिशे केवल और केवल सरकारी कागजो पर रंगीन नजर आयेंगी....