Monday, September 24, 2012

आदिवासियों को लूटेरा बना दिया है !



          जमीन के टुकड़े और रोटी के संकट ने भोले-भाले आदिवासियों को लूटेरा बना दिया है ! भोला-पन छोड़कर हिंसा की राह पर नंगे पाँव दौड़ने वाले पंडो आदिवासियों की जीवन शैली बदलते वक्त के साथ संघर्षपूर्ण होती चली गई ! सरकार ने आदिवासियों की जिस जाति को संरक्षित घोषित किया वो अब विलुप्ति की कगार पर है ! कोरबा के देवपहरी इलाके में जिन पंडो आदिवासियों की कईयों पीढ़ियों ने वक्त काटा वो पिछले पांच साल से उस जमीन के लिए संघर्ष कर रहे है जो सरकारी दस्तावेजों में अहीरों के नाम चढ़ा दी गई है ! जानकार बताते है आज जिस जमीन पर अहीरों का कब्ज़ा है उस पर सन १९२८-२९ के मिसाल रिकार्ड के मुताबिक पंडो आदिवासियों का कब्ज़ा था ! इन सालों में पंडो आदिवासियों गुजर चुकी पीढ़ी उस जमीन से पलायन कर गई ! इसी बीच सरकार ने मिसाल रिकार्ड की सारी जमीनों को विलोपित कर जमीने उनके नाम कर दी जो उस पर काबीज हो गए ! उस वक्त पंडो की पीढ़ियों का पलायन अहिरो के लिए आज वरदान साबित हो रहा है ! धीरे-धीरे अहीर जाति के लोग देवपहरी और आस-पास के इलाके में बसते चले गए और जो जंगल की जमीन के असली हकदार थे उन्हें पहाड़ पर इतने ऊपर और भीतर खदेड़ दिया गया जहां भूख-प्यास मिटाने के इन्तेजाम नहीं है ! सरंक्षित पंडो आदिवासियों की बढती भूख-प्यास ने उन्हें उस जमीन की ओर खीचना शुरू किया जहां अहीरों की फसल लहलहा रही है ! पांच साल से लूट-मार का सिलसिला चल रहा है ! खबर मिलने पर प्रशासन पुलिस के दम पर पंडो आदिवासियों को खामोश रहने की चेतावनी इस भरोसे के साथ देता है की जल्द ही उन्हें जमीन दे दी जाएगी ! पिछले सालों की तरह इस साल भी पंडो आदिवासी पहाड़ से उतरकर अहीरों की बस्ती कोड़हाभाता  पहुंचे जहां तीर-धनुष के दम पर फसल काट ली गई ! फसल काटने के बाद अहीरों को बस्ती छोड़ने की चेतावनी भी दे दी गई ! इस बीच प्रशासन ने पुलिस बल भेजकर पंडो आदिवासियों को गाँव से उठा लिया और बालको में तीन दिनों तक रखकर मामले के निराकरण की औपचारिकता की गई और जमीन देने का आश्वासन देकर पंडो आदिवासियों को वापस किसी जंगली जानवर की तरह जंगल में ले जाकर छोड़ दिया गया
           पंडो आदिवासियों की वापसी के बाद मैंने शनिवार को देवपहरी से जंगल के भीतर ग्राम सोनारी पहुँचने के लिए काफी मशक्कत की ! पूछते पूछते हम करीब चार किलोमीटर पैदल चलकर पंडो आदिवासियों के गाँव सोनारी पहुंचे ! रास्ते में प्राथमिक शाला और आँगनबाड़ी केंद्र नजर आये मगर आस-पास के खरपतवार उनके हमेशा बंद रहने की गवाही दे रहे थे ! पहाड़ के ऊपर सोनारी गाँव में पंडो आदिवासियों का आशियाना दूर-दूर था लिहाजा हमने एक पंडो आदिवासी से सबको एक जगह पर बुलाने को कहा...! काम पर जा रहा वो पंडो आदिवासी हमारी बात मानने को राजी हो गया और थोड़ी ही देर में एक पंडो आदिवासी के घर के बाहर हमने चोपाल लगा ली ! हमने पूछा सरकार जो जमीन देना चाहती है उसे वो क्यूँ नही लेना चाहते ,जवाब आया साहेब इससे भी ऊँचे पहाड़ पर जमीन दे रहे थे,वहां ना पानी है ना मिटटी ! आखिर कैसे फसल पैदा करेंगे ! जवाब लाजिमी था सुनकर हमने उनकी परेशानी समझ ली,पर प्रशासन पांच साल से इस बात को नही समझ प् रहा है की पंडो आदिवासी विवाद नही उपजाऊ जमीन और रोटी चाहते है

    इस बार के गहराए विवाद में कुछ पंडो आदिवासियों के खिलाफ कटघोरा पुलिस ने अपराध भी दर्ज कर लिया था मगर विवाद पर विराम लगाने प्रशासन ने सभी के खिलाफ दर्ज मामले को वापस लेने की बात कह दी है ! पंडो आदिवासी साफ़ कहते है उनका कोई रहबर नही है,यही वजह है की वो हर साल पेट की आग बुझाने की चाह में पुलिस के फेर में फंस जाते है ! इलाके के आदिवासी नेता और प्रदेश के गृह मंत्री को इन पंडो आदिवासियों की दुर्दशा और संघर्ष से कटे वक्त से सरोकार नही है ! हो भी क्यूँ इनकी कम संख्या नेताजी के वोट बैंक पर ख़ास असर नही डालती ! सोनारी में पंडो आदिवास्यों का १३ परिवार रहता है जिनकी संख्या ४५ है ! इन पंडो आदिवासियों में से कईयों के पास सरकारी राशन के कार्ड नही है लिहाजा कुछ पंडो आदिवासी रूपये किली से लेकर १३ रुपये किलो तक का चावल खरीदते है ! सरकार की रंग-बिरंगी राशन कार्ड की योजना इनके पल्ले नही पड़ती ! कार्ड दिखाकर कुछ पंडो ने कहा जो योजना उनके लिए चलाई गई उसका भी लाभ उन्हें सही ढंग से नही मिलता !बीहड़ जंगल में दूर दूर बसी झोपड़ियों में रह रहे पंडो आदिवासियों के तन पर भले ही बदलते वक्त ने कपडे का बोझ लाड दिया हो मगर पेट आज भी भूख से मरोड़ता है ! यही वजह है की जब पेट की आग भभककने लगती है तो ये तीर धनुष लेकर उस जमीन पर लगी फसल काटने निकल पड़ते है जहां कभी इनके पूर्वज रहा करते थे ! सरकार की इनके प्रति संवेदनहीनता और प्रशासन की लगातार उपेक्षा ने विवाद को आज तक बनाये रखा है ! हर बार आश्वासन और उस आश्वासन की भूल इन्हें मार-काट करने को मजबूर कर जाती है ! हमने इन पंडो से पूछा की इस बार भी जमीन का मसला नही सुलझा तो अगले बरस कैसे करोगे जवाब आया अब फसल नही काटेंगे किसी से मदद की गुहार लगाकर अपने हक़ की लड़ाई क़ानून के जरिये लड़ेंगे !
                            जंगल के कंदमूल खाने वाले इतना तो समझ चुके है की उनके साथ कोई नही है ! एक जन शिक्षक इनके बीच मध्यस्थता करवाता था वो अब यहाँ वहां भागता फिर रहा है,वजह है पंडो आदिवासी उसे अब अपना दुश्मन मानने लगे है ! जिन आदिवासियों ने जंगल की गुमनामी के बीच रहकर नंगे बदन को ढंकना सीख लिया वो जमीन ना मिलने पर क़ानून की चौखट पर चढ़ जाए तो आश्चर्य नही होगा