Tuesday, October 9, 2012

संस्कारिता अथवा संस्कारहीनता का...!


मां-बाप में मानवीय दुर्बलताएं भी होंगी ही, लेकिन अपने हृदय में उनके प्रति पूर्ण प्रेम रखना और व्यवहार में उनका आदर-सत्कार करना बच्चों का परम धर्म है।जुलाई में कॉलेज खुलने पर वर्ग में नए विद्यार्थी आते हैं, तो वे एक-से लगते हैं, परंतु धीरे-धीरे अंतर मालूम पड़ने लगता है। कौन कहां से आया होगा, किसका घर कैसा होगा, इसका सहज अनुमान, थोड़े दिनों में होने लगता है।कपड़े-लत्ते अथवा साइकिल, स्कूटर, मोटर पर से पिता की आय का जो अनुमान होता है, वह गौण बात है, परंतु बोलने-चालने के ढंग से तथा पारस्परिक व्यवहार में विवेक और शिष्टता बदलने (अथवा उसके अभाव) से जिस तरह प्रत्येक की संस्कारिता अथवा संस्कारहीनता का पता चलता है उसी तरह कौन किसके साथ घूमता फिरता है और कैसी संगति में बैठता है, उस पर से प्रत्येक के पालन-पोषण के संस्कार तुरंत प्रकट हो जाते हैं।तुम दुनिया के सामने अपने घर के प्रतिनिधि हो और दुनिया तुम्हारे आचार-व्यवहार पर से ही तुम्हारे कुटुम्ब के बारे में राय बनाती है। राजदूत को विदेश में सचेत होकर रहना होता है, क्योंकि देश की इज्जत-आबरू उसके रहन-सहन और व्यवहार पर ही निर्भर होती है। राजदूत की बात एक तरह से राजा की ही बात होती है। इसी तरह कुल की प्रतिष्ठा उसके वंशज के हाथ में होती है। इतनी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर चुकी है।
अन्य दृष्टिकोण से देखें तो तुम्हारा घर तुम्हारे व्यक्तित्व-निर्माण की प्रथम पाठशाला और अंतिम विद्यापीठ होता है। तुम उसके स्नातक हो, इसलिए अपनी वास्तविक मातृसंस्था को दीप्तिमान करना तुम्हारा कुलधर्म हो जाता है। स्कूल-कॉलेज तुम बदल सकते हो, परंतु घर की जीवन-शाला बदली नहीं जा सकती। इसलिए इस कुल-धर्म का पहला नियम उसे (घर की जीवनशाला को) हृदय से स्वीकार करना है।आत्म-स्वीकृति का मूल सिद्धांत यहां भी लागू होता है। अपनी पसंद के ही मां-बाप तुम्हें मिले हों, यह बात नहीं, और उनमें माननीय दुर्बलताएं भी होंगी ही, फिर भी अपने हृदय में उनके लिए पूर्ण प्रेम रखना, व्यवहार में उनका आदर-सत्कार करना और समाज में उनके लिए गौरव अनुभव करना, तुम्हारा परम धर्म है।एक युद्ध-मोर्चे के पास विश्राम के समय सेना के जवानों और अफसरों की टोली जमा हो गई थी। लड़ाई की बातें चर रही थीं- किसकी बहादुरी बढ़कर है, किसका पराक्रम अधिक है, आदि। इतने में एक गरीब वृद्ध स्त्री हाथ में एक पोटली लकेर उधर आती दिखाई दी।टोली में से एक ने मजाक किया, "बुढ़िया, यह महादेव का मंदिर नहीं, फौज का पड़ाव है! बोलो, यमदेव को कुछ चढ़ाना है?" लेकिन वृद्धा शांत रही और स्नेहपूर्वक एक अफसर के पास आकर खड़ी हो गई, जो उसका बेटा था। सहज-भाव से वह बोली, "मुझे मालूम था कि तू यहां है, इसलिए आशीर्वाद देने गई हूं। बेटा, मातृभूमि के लिए बहादुरी से लड़ना! तुझे पंजीरी और नमकीन पूरी पसंद है , वह मैं तेरे लिए बनाकर लाई हूं। अपने मित्रों को भी खिलाना।"सब देखते रहे। वह शार्मिदा होगा और कुछ सुना भी देगा, ऐसा सबने सोचा था, परंतु आफीसर कुलीन व्यक्ति था। सबके देखते उसने आगे बढ़कर मां के चरणों में प्रणाम किया और खाने की पोटली हर्ष से लेकर उसी समय पूड़ियां सबको बांटने लगा, "सब लो, यह मां का प्रसाद है। इसे ग्रहण कर कल जरूर जीतेंगे।" निस्संदेह दुश्मनों के हमले को खुली छाती से झेलने की अपेक्षा सबके सामने मां-बाप का सत्कार करना अधिक बहादुरी की बात होती है।अपनी और अपने बुजुर्गो की दुनिया के बीच पड़ी हुई कम-से-कम बीस-तीस वर्ष की खाई का तुम खयाल रखोगे, तो बहुत-सी नासमझी और अनबन अपने आप टल जायगी। नि:श्वास छोड़ने हुए पिता बड़बड़ाया, "मुझे मोटर चलाना नहीं आता, और यह मेरा लड़का लाइसेंस के बिना स्कूटर दौड़ाता है!" लड़के के स्कूटर चलाने का दुख पिता को होना चाहिए, और लाइसेंस मिलने से पूर्व स्कूटर चलाने की जल्दवाजी लड़के को नहीं करनी चाहिए।संघर्ष में सदैव दो वस्तुएं होती हैं। क्लेश में दो व्यक्ति होने चाहिए। एक अगर दूसरे का ध्यान रखे, तो संघर्ष कम हो जाए।"ये लोग मुझे समझते नहीं", यह तो तुम्हारी हमेशा की शिकायत है; परंतु क्या तुम सचमुच उन्हें समझने का दावा कर सकते हो? उनके पक्ष में इतना तो कहा ही जा सकता है कि जवानी का उन्होंने अनुभव किया है, जबकि तुम तो प्रौढ़ावस्था के बारे में सिर्फ सुनी-सुनाई बातें ही जानते हो। तुम्हें उसका जब प्रत्यक्ष अनुभव होगा, तब दूसरी पीढ़ी तुम्हारा आज का स्थान लेकर तुम्हारी यही शिकायत तुमसे करने लगेगी।इस बीच युवक तथा बुजुर्गो के बीच के भेद को समझने के लिए, इन बातों पर ध्यान दो-युवक के पास अखूट शक्ति और स्फूर्ति का भंडार है, जबकि बुजुर्ग जल्दी थक जाता है; युवक के हृदय के भाव वर्षाऋतु के आकाश की तरह देखते-देखते बदल जाते हैं, जबकि बुजुर्ग का मनोभाव स्थिर होता है; युवक हमेशा जल्दबाजी करता है, बुजुर्ग घड़ी की तरह धीमे चलता है; युवक प्रयोगशील है, बुजुर्ग रूढ़िप्रिय है; युवक अपनी चिंता करता है, बुजुर्ग युवकों की ही चिंता करता है; और इसमें शक नहीं कि युवक बुजुर्गो की आलोचना करते हैं, जब कि बुजुर्ग युवकों की प्रत्यालोचना करते हैं।
                    दुनिया को कभी-कभी बुजुर्ग के चश्मे से देखने का प्रयोग करोगे, तो दो पीढ़ी के बीच का अंतर तुम्हारें लिए घट जाएगा।राजकुमार एक दिन जरूर गद्दी पर बैठेगा, परंतु इसके लिए जल्दबाजी करना उसके लिए शोभास्पद नहीं। राजनीति और शासन-तंत्र का कुछ भी अनुभव लिए बिना यदि राजदंड उसके हाथ में आए तो प्रजा के लिए दुख के दिन आए समझो।घर में भी, युवक के सामाजिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाना चाहिए। पच्चीस वर्ष के तरुण को घर के सब लोगों के द्वारा 'बेबी' कहकर सम्बोधन करने में प्रेम का प्रमाण जरूर मिलेगा, परंतु व्यक्ति-विकास की दृष्टि से आत्मस्वातं˜ को कुम्हलाने वाला यह प्रयोग है। बालक को कब तक पालने में सुलाया जा सकता है?चीन देश में ऐसी रूढ़ि थी कि स्त्री के पैर छोटे ही अच्छे लगते हैं। इसलिए बचपन से ही लड़की के पैर लकड़ी के सख्त जूते में जकड़कर बड़े नहीं होने दिए जाते थे। पैर की अपेक्षा आत्मा का ही जब रूढ़ि के चौखटे में दम घोंटने की कोशिश की जाए, तो युवक का तेज विनष्ट हो जाता है।इसके विपरीत, मां-बाप की स्नेहभरी देखभाल में पहते हुए युवक को, क्रम-क्रम से अधिक छूट मिलती रहे; पैसे खर्चने की जिम्मेदारी, कपड़ों की पसंदगी, घूमने-फिरने की छूट धीरे-धीरे उसे मिलती रहे; और आज्ञापालन के साथ स्वतंत्रता, सलाह के साथ स्वानुभव, भूल करने की शक्यता के साथ भूल मान लेने की और दंड को स्वीकार कर लेने की संस्कारिता स्वाबलम्बन के साथ मार्गदर्शन मांगने की तैयारी उसमें जाए, तो जैसे तैरना सीखनेवाला अपने-आप ही हाथ-पैर हिलाता है, परंतु साथ-ही-साथ समीप खड़े हुए शिक्षक की ओर देखता है और आवश्यक पड़ने पर उसका हाथ भी पकड़ता है, वैसे ही घर का युवक मां-बाप का आधार लेकर संसार-सागर में तैरने की कला हस्तगत कर सकता है।कुटुम्ब के प्रति पूर्ण भक्ति भी कुलधर्म का सिद्धांत है। घर की बात घर से बाहर जाए; मां-बाप की आलोचना सुपुत्र की जीभ बिगाड़ती है।प्रथम नमक तो घर का ही चखा, इसलिए पहली नमक-हलाली घर के प्रति ही होनी चाहिए। घर में दुख हो, तब बाहर कहा जा सके, ऐसा दुख हो, तब क्या करना चाहिए? जिनके बीच गाढ़ी आत्मीयता होनी चाहिए, वे ही अगर झगड़ें, अनबन और पृथकता तक के शिकार बने हों तो क्या करना चाहिए?घर के दुख जैसा और दुख नहीं। मां-बाप के पारस्परिक क्लेश-कलह का लड़के के कोमल मन पर मर्मातक आघात होता है।कोमल मन और हृदय में जो घाव होता है वह कभी भरता नहीं, परंतु इसमें भी पहला सिद्धांत स्वीकार करना है।