Friday, February 25, 2011

उसका नाम "शन्नो" है

आपने गुमशुदा इन्सान की रिपोर्ट थानों में लिखवाते देखा,सुना होगा मगर ये कम ही सुनाई पड़ता है कि किसी व्यक्ति का जानवर गुम हो गया हो और वो थानेदार साहेब के नाम लिखित शिकायत लिखकर अपने जानवर के खोज-बीन की गुहार लगा रहा हो...इस मामले में मेरा अनुभव हो सकता है कम हो,क्योंकि इस पोस्ट पर प्रकाश कुमार शर्मा नाम के एक सज्जन के लिखित शिकायत की जिस तस्वीर को मैंने लगायी है उसको पढ़कर पता चला की सज्जन की गाय कहीं गुम हो गई है...गुमशुदा इंसानों की हजारो तस्वीरे सार्वजनिक जगहों  पर दीवारों पर चस्पा देखि है,कई गुम इंसानों की खबरों को मैंने खुद लिखा है...मगर गाय की गुमशुदगी का ख़त वो भी खबर बनाने के लिहाज से मेरे हाथ आज पहली बार लगा है...थानेदार साहेब को गाय खोजने में कोई कठिनाई न हो इसका भी पीड़ित व्यक्ति ने ख्याल रखा है...गुमशुदगी के ख़त में थानेदार साहेब को बताया गया है "गाय लाल रंग की है...उसकी सींग खड़ी है और पूँछ लम्बी है...गाय की सींग में पीले रंग का पेंट भी लगा है...थानेदार साहेब को पत्र के जरिये ये भी बताया गया है की गाय जर्सी नस्ल की है...बात इतने पर ख़त्म होती तो भी ठीक था लेकिन शिकायतकर्ता ने पुलिस वालो को ये भी बता दिया है की जिस गाय की उनको तलाश करनी है उसका नाम शन्नो है..." पूरा ख़त पढकर मुझे कई तरह का अनुभव हुआ...जिसकी गाय गुम थी वो परेशान लग रहा था,मै उस यानी प्रकाश कुमार शर्मा जी के शिकायती पत्र को पढ़कर परेशान हो गया...जिस शहर में गुम इंसानों की तलाश पुलिस वाले नही कर पाते उन्हें सन्नो को खोजने के पहले रिपोर्ट दर्ज करने का ख़त मिला था...कोई हो न हो मै तो चिंता में पड़ गया कि आवाम की सुरक्षा में विफल खाकी किस तरह से सन्नो को खोजेगी...?   
                                                                वैसे कई मायनो में ये ख़त ख़ास भी है...जिस पुलिस को जनता की रक्षा का जिम्मा दिया गया है वो उसकी जानो-माल की दुश्मन बन बैठी है...अपराधी खाकी की तमाम सुरक्षा को ठेंगा दिखाकर अपने मंसूबो में कामयाब है...ऐसे में किसी इंसान ने पुलिस पर इतना तो भरोसा जताया की वो उसकी गुमशुदा गाय की रिपोर्ट लिखकर उसकी तलाश करे... 

Saturday, February 12, 2011

प्यार करना मुश्किल है

क्या प्रेम का कोई दिन हो सकता है। अगर एक दिन है, तो बाकी दिन क्या नफरत के हैं ? वेलेंटाइन डे जैसे पर्व हमें बताते हैं कि प्रेम जैसी भावना को भी कैसे हमने बांध लिया है, एक दिन में या चौबीस घंटे में। पर क्या ये संभव है कि आदमी सिर्फ एक दिन प्यार करे, एक ही दिन इजहार-ए मोहब्बत करे और बाकी दिन काम का आदमी बना रहे। जाहिर तौर पर यह संभव नहीं है। प्यार एक बेताबी का नाम है, उत्सव का नाम है और जीवन में आई उस लहर का नाम है जो सारे तटबंध तोड़ते हुए चली जाती है। शायद इसीलिए प्यार के साथ दर्द भी जुड़ता है और शायर कहते हैं दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।
                           प्रेम के इस पर्व पर आंखों का चार होना और प्रेम प्रस्ताव आज एक लहर में बदल रहे हैं। स्कूल-कालेजों में इसे खासी लोकप्रियता प्राप्त है। इसने सही मायने में एक नई दुनिया रच ली है और इस दुनिया में नौजवान बिंदास घूम रहे हैं और धूम मचा रहे है। भारतीय समाज में प्रेम एक ऐसी भावना है जिसको बहुत आदर प्राप्त नहीं है। दो युवाओं के मेलजोल को अजीब निगाह से देखना आज भी जारी है। हमारी हिप्पोक्रेसी या पाखंड के चलते वेलेंटाइन डे की लोकप्रियता हमारे समाज में इस कदर फैली है। शायद भारतीय समाज में इतने विधिनिषेध और पाखंड न होते तो वेलेंटाइन डे जैसे त्यौहारों को ऐसी सफलता न मिलती। किंतु पाखंड ने इस पर्व की लोकप्रियता को चार चांद लगा दिए हैं। भारत की नौजवानी अपने सपनों के साथ जी रही है किंतु उसका उत्सवधर्मी स्वभाव हर मौके को एक खास इवेंट में बदल देता है। प्रेम किसी भी रास्ते आए उसका स्वागत होना चाहिए। वेलेंटाइन एक ऐसा ही मौका है , आपकी आकांक्षाओं और सपनों में रंग भरने का दिन भी। सेंट वेलेंटाइन ने शायद कभी सोचा भी न हो कि भारत जैसे देश में उन्हें ऐसी लोकस्वीकृति मिलेगी।
                                                       वेलेंटाइन के पर्व को दरअसल बाजार ने ताकत दी है। कार्ड और गिफ्ट कंपनियों ने इसे रंगीन बना दिया है। भारत आज नौजवानों का देश है। इसके चलते यह पर्व एक अद्भुत लोकप्रियता के शिखर पर है। नौजवानों ने इसे दरअसल प्रेम पर्व बना लिया है। इसने बाजार की ताकतों को एक मंच दिया है। बाजार में उपलब्ध तरह-तरह के गिफ्ट इस पर्व को साधारण नहीं रहने देते, वे हमें बताते हैं कि इस बाजार में अब प्यार एक कोमल भावना नहीं है। वह एक आतंरिक अनूभूति नहीं है वह बदल रहा है भौतिक पदार्थों में। वह आंखों में आंखें डालने से महसूस नहीं होता, सांसों और धड़कनों से ही उसका रिश्ता नहीं रहा, वह अब आ रहा है मंहगे गिफ्ट पर बैठकर। वह महसूस होता है महंगे सितारा होटलों की बिंदास पार्टियों में, छलकते जामों में, फिसलते जिस्मों पर। ये प्यार बाजार की मार का शिकार है। उसे और कुछ चाहिए, कुछ रोचक और रोमांचक। उसकी रूमानियत अब पैसे से खिलती है, उससे ही दिखती है। यह हमें बताती है कि प्यार अब सस्ता नहीं रहा। वह यूं ही नहीं मिलता। लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की बातें न कीजिए, यह प्यार बाजार के उपादानों के सहारे आता है, फलता और फूलता है। इस प्यार में रूह की बातें और आत्मा की रौशनी नहीं हैं, चौधिंयाती हुयी सरगर्मियां हैं, जलती हुयी मोमबत्तियां हैं, तेज शोर है, कानफाड़ू म्यूजिक है। इस आवाज को दिल नहीं, कान सुनते हैं। कानों के रास्ते ये आवाज, कभी दिल में उतर जाए तो उतर जाए।
                            इस दौर में प्यार करना मुश्किल है और निभाना तो और मुश्किल। इस दौर में प्यार के दुश्मन भी बढ़ गए हैं। कुछ लोगों को वेलेंटाइन डे जैसे पर्व रास नहीं आते। इस अवसर पर वे प्रेमियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। देश में अनेक संगठन चाहते हैं कि नौजवान वेलेंटाइन का पर्व न मनाएं। जाहिर तौर पर उनकी परेशानियों हमारे इसी पाखंड पर्व से उपजी हैं। हमें परेशानी है कि आखिर कोई ऐसा त्यौहार कैसे मना सकता है जो प्यार का प्रचारक है। प्यार के साथ आता बाजार इसे प्रमोट करता है, किंतु समाज उसे रोकता है। वह चाहता है संस्कृति अक्षुण्ण रहे। संस्कृति और प्यार क्या एक-दूसरे के विरोधी हैं ? प्यार, अश्ललीलता और बाजार मिलकर एक नई संस्कृति बनाते हैं। शायद इसीलिए संस्कृति के रखवाले इसे अपसंस्कृति कहते हैं। सवाल यह है कि बंधन और मिथ्याचार क्या किसी संस्कृति को समर्थ बनाते हैं ? शायद नहीं। इसीलिए नौजवान इस विधि निषेधों के खिलाफ हैं। वे इसे नहीं मानते, वे तोड़ रहे हैं बंधनों को। बना रहे हैं अपनी नई दुनिया। वे इस दुनिया में किसी के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं प्यार जिए और सलामत रहे। प्यार की जिंदाबाद लगे। बाजार उनके साथ है। वह रंग भर रहा है, उन्हें प्यार के नए फलसफे समझा रहा है। प्यार के नए रास्ते बता रहा है। इस नए दौर का प्यार भी क्षणिक है ,वह एक दिन का प्यार है। इसलिए वन नाइट स्टे एक हकीकत बनकर हमें मुंह चिढ़ा रहा है। ऐसे में रास्ता क्या है ? सहजीवन जब सच्चाई में बदल रहा हो। महानगर अकेले होते इंसान को इन रास्तों से जीना सिखा रहे हों। एक वर्चुअल दुनिया रचते हुए हम अपने अकेले होने के खिलाफ खड़े हो रहे हों तो हमारा रास्ता मत रोकिए। यह हमारी रची दुनिया भले ही क्षणिक और आभासी है, हम इसी में मस्त-मस्त जीना चाहते हैं। नौजवान कुछ इसी तरह से सोचते हैं। प्यार उनके लिए भार नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है, दायित्व नहीं है, एक विनिमय है। क्योंकि यह बाजार का पैदा किया हुआ, बाजार का प्यार है और बाजार में कुछ स्थाई नहीं होता। इसलिए उन्हें झूमने दीजिए,क्योंकि इस कोलाहल में वे आपकी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्हें पता है कि आज वेलेंटाइन डे है, कल नई सुबह होगी जो उनकी जिंदगी में ज्यादा मुश्किलें,ज्यादा चुनौतियां लेकर आने वाली है- इसलिए वे कल के इंतजार में आज की शाम खराब नहीं करना चाहते। इसलिए हैप्पी वेलेंटाइन डे...

जिन्दगी बन गए हो तुम...

यह दौर दरअसल मोबाइल क्रांति का समय है। इसने सूचनाओं और संवेदनाओं दोनों को कानों-कान कर दिया है। अब इसके चलते हमारे कान, मुंह, उंगलियां और दिल सब निशाने पर हैं। मुश्किलें इतनी बतायी जा रही हैं कि मोबाइल डराने लगे हैं। कई का अनुभव है कि मोबाइल बंद होते हैं तो सूकून देते हैं पर क्या हम उन्हें छोड़ पाएगें? मोबाइल फोनों ने किस तरह जिंदगी में जगह बनाई है, वह देखना एक अद्भुत अनुभव है। कैसे कोई चीज जिंदगी की जरूरत बन जाती है- वह मोबाइल के बढ़ते प्रयोगों को देखकर लगता है। वह हमारे होने-जीने में सहायक बन गया है। पुराने लोग बता सकते हैं कि मोबाइल के बिना जिंदगी कैसी रही होगी। आज यही मोबाइल खतरेजान हो गया है। पर क्या मोबाइल के बिना जिंदगी संभव है ? जाहिर है जो इसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं, उनके लिए यह एक बड़ा फैसला होगा। मोबाइल ने एक पूरी पीढ़ी की आदतों उसके जिंदगी के तरीके को प्रभावित किया है।
                                    सरकार की उच्चस्तरीय कमेटी ने जो रिपोर्ट सौंपी है वह बताती है कि मोबाइल कितने बड़े खतरे में बदल गया है। वह किस तरह अपने विकिरण से लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल रहा है। रेडियेशन के प्रभावों के चलते आदमी की जिंदगी में कई तरह की बीमारियां घर बना रही हैं, वह इससे जूझने के लिए विवश है। इस समिति ने यह भी सुझाव दिया है कि रेडियेशन संबंधी नियमों भारतीय जरूरतों के मुताबिक नियमों में बदलाव की जरूरत है। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा विषय पर जिस पर व्यापक विमर्श जरूरी है। मोबाइल के प्रयोगों को रोका तो नहीं जा सकता हां ,कम जरूर किया जा किया जा सकता है। इसके लिए ऐसी तकनीकों का उपयोग हो जो कारगर हों और रेडियेशन के खतरों को कम करती हों। आज शहरों ही नहीं गांव-गांव तक मोबाइल के फोन हैं और खतरे की घंटी बजा रहे हैं। लोगों की जिंदगी में इसकी एक अनिर्वाय जगह बन चुकी है। इसके चलते लैंडलाइन फोन का उपयोग कम होता जा रहा है और उनकी जगह मोबाइल फोन ले रहे हैं
                                            ये फोन आज जरूरत हैं और फैशन भी। नयी पीढ़ी तो अपना सारा संवाद इसी पर कर रही है, उसके होने- जीने और अपनी कहने-सुनने का यही माध्यम है। इसके अलावा नए मोबाइल फोन अनेक सुविधाओं से लैस हैं। वे एक अलग तरह से काम कर रहे हैं और नई पीढी को आकर्षित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में सूचना और संवाद की यह नयी दुनिया मोबाइल फोन ही रच रहे हैं। आज वे संवाद के सबसे सुलभ,सस्ते और उपयोगी साधन साबित हो चुके हैं। मोबाइल फोन जहां खुद में रेडियो, टीवी और सोशल साइट्स के साथ हैं वहीं वे तमाम गेम्स भी साथ रखते हैं। वे दरअसल आपके एकांत के साथी बन चुके हैं। वे एक ऐसा हमसफर बन रहे हैं जो आपके एकांत को भर रहे हैं चुपचाप। मोबाइल एक सामाजिकता भी है और मनोविज्ञान भी। वह बताता है कि आप इस भीड़ में अकेले नहीं हैं। वह बेसिक फोन से बहुत आगे निकल चुका है। वह परंपरा के साथ नहीं है, वह एक उत्तरआधुनिक संवाद का यंत्र है। उसके अपने बुरे और अच्छेपन के बावजूद वह हमें बांधता है और बताता है कि इसके बिना जिंदगी कितनी बेमानी हो जाएगी।
                      मोबाइल नित नए अवतार ले रहा है। वह खुद को निरंतर अपडेट कर रहा है। वह आज एक डिजीटल डायरी, कंप्यूटर है, लैपटाप है, कलकुलेटर है, वह घड़ी भी है और अलार्म भी और भी न जाने क्या- क्या। उसने आपको, एक यंत्र में अनेक यंत्रों से लैस कर दिया है। वह एक अपने आप में एक पूरी दुनिया है जिसके होने के बाद आप शायद कुछ और न चाहें। इस मोबाइल ने एक पूरी की पूरी जीवन शैली और भाषा भी विकसित की है। उसने मैसजिंग के टेक्ट्स्ट को एक नए पाठ में बदल दिया है। यह आपको फेसबुक से जोड़ता और ट्विटर से भी। संवाद ऐसा कि एक पंक्ति का विचार यहां हाहाकार में बदल सकता है। उसने विचारों को कुछ शब्दों और पंक्तियों में बाँधने का अभ्यास दिया है। नए दोस्त दिए हैं और विचारों को नए तरीके से देखने का अभ्यास दिया है। उसने मोबाइल मैसेज को एक नए पाठ में बदल दिया है। वे संदेश अब सुबह, दोपहर शाम कभी आकर खड़े हो जाते हैं और आपसे कुछ कहकर जाते हैं। इस पर प्यार से लेकर व्यापार सब पल रहा है। ऐसे में इस मोबाइल के प्रयोगों से छुटकारा तो नामुमकिन है और इसका विकल्प यही है कि हम ऐसी तकनीको से बने फोन अपनाएं जिनमें रेडियेशन का खतरा कम हो। हालांकि इससे मोबाइल कंपनियों को एक नया बाजार मिलेगा और अंततः लोग अपना फोन बदलने के लिए मजबूर होंगें। किंतु खतरा बड़ा है इसके लिए हमें समाधान और बचत के रास्ते तो तलाशने ही होंगें। क्योंकि मोबाइल के बिना अब जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी। इसलिए मोबाइल से जुड़े खतरों को कम करने के लिए हमें राहें तलाशनी होगीं। क्योंकि चेतावनियों को न सुनना खतरे को और बढ़ाएगा।

कुछ ना कहना सरकार...

अबूझमाड़ इलाके के छोटेडोंगर से अगवा पांचों जवानों को नक्सलियों ने 18वें दिन शुक्रवार को करियामेटा के पास जंगलों में जनअदालत लगाने के बाद रिहा कर दिया....जवानों को हथियारबंद नक्सलियों के दल ने 25 जनवरी को ओरछा से नारायणपुर आ रही बस को रोककर अगवा कर लिया था... जवानों की रिहाई सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश की मध्यस्थता के बाद संभव हो सका है... उनके साथ सात मानवाधिकार कार्यकर्ता और जवानों के परिजन भी करियामेटा के जंगल में गए थे.. ये खबर उन परिवारों के लिए अच्छी है जिनके यहाँ के होनहार सपूत बस्तर में नक्सलियों से मुकाबला करने तैयार है...अगवा जवानो में रामाधार पटेल (थाना पाली, छिंदपाली कोरबा), रघुनंदन ध्रुव (निवासी भरियाडोंगरी भरभतपुर रेंगाखार) व टी एक्का (नगपार जशपुर)। आरक्षक रंजन दुबे (रीवा) व मणिशंकर (चरोदा भिलाई) सभी सीएएफ 11वीं बटालियन के हैं, जिसका मुख्यालय जांजगीर में है... पांचों जवान धनोरा थाना में पदस्थ हैं...नक्सलियों ने पहली बार ऐसा किया हो ऐसा भी नही है,लेकिन इस बार नक्सलियों के चंगुल से अगवा जवानों को छुड़ाने सरकार ने कोई पहल नही की...पहली बार सरकार की लाचारी सामने थी ऐसा भी नही है...सरकार इस बार कुछ ज्यादा ही लाचार लगी तभी तो अगवा जवानो की रिहाई के लिए नक्सलियों की पहल का इन्तजार कर रही थी...सरकार के पांच जवान नक्सलियों के कब्जे में थे और सरकार आयोजनों में व्यस्त रही....इस पूरे मामले में संवेदनशील सरकार एक बार फिर कटघरे में है..
                                        सरकार  के समानांतर सरकार चलाने वाले नक्सली पांच जवानो को रिहा करने के लिए जनअदालत लगाते है,बाकायदा सरकार के नुमाइंदे,मानवाधिकार संगठन से जुड़े लोगो की मौजूदगी में नक्सली उन जवानों से पुलिस की नौकरी छोड़ने की शर्त रखते है जिसे ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया जाता है...सशर्त जवान रिहा कर दिए जाते है मगर क्या समस्या इतने पर ख़त्म हो जाती है...? यकीनन नही,नक्सलियों ने जनअदालत लगाकर जो फरमान सुनाया वो बस्तर के हालत को बयाँ करता है...बस्तर में सरकार का कोई नियंत्रण नही है,नक्सली जैसा चाहते है कर रहे है...क्योंकि नक्सल प्रभावित बस्तर में जहाँ सब कुछ हुआ वहां हजारो ग्रामीणों के अलावा जवानों की रिहाई में मधय्स्त्ता करने वाले स्वामी अग्निवेश के अलावा मानवाधिकार के जाने-माने ठेकेदार मौजूद थे लेकिन नक्सलियों से किसी ने ये सवाल नही पुछा की आखिर नौकरी छोड़ने के बाद उनके परिवार का क्या होगा...? मानवाधिकार की वकालत करने वालो को शायद ये तो पता ही होगा की बन्दूक की नोक पर नौकरी छोड़ने का हुक्म देना भी मानवाधिकार का हनन है...? 
                                   संवेदनशील मुख्यमंत्री, विश्वशनीय छत्तीसगढ़ और ना जाने क्या-क्या...इस तरह की बाते सुनकर मुगालते में रहना अब शायद सरकार की आदत में शुमार हो चला है,तभी तो सरकार अगवा जवानों के मसले में कुछ ख़ास नही बोले...उन्हें उम्मीद थी परिवार के लोग,मिडिया वाले कोशिश तो करेंगे ही...जवान रिहा हुए तो सिलसिला श्रेय लेने का शुरू हुआ...उस कतार में मेरी जमात{पत्रकारों}वालो की मौजूदगी सबसे आगे नजर आई...सबने अपने अपने तरीके से बताने की कोशिश की हमारी पहल पर नक्सलियों ने जवानों को रिहा किया है...कुछ सरकार की दलाली करने से भी बाज नही आये...इस पूरे मामले में एक सवाल अब भी सरकार,मानवाधिकार संगठन के ठेकेदारों और मेरी जमात वालो को हिकारत भी नजरो से देख रहा था...सवाल था अगर रिहा जवान नक्सलियों की बाते मान लेते है तो उनकी रोटी-रोजी का इन्तेजाम आखिर कौन करेगा...?     
                               इस मसले पर मिडिया से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा कि जवानों को छोड़ने का नक्सलियों का रुख सकारात्मक रहा है, वे उनका स्वागत करते हैं... उन्होंने स्वामी अग्निवेश को भी बधाई देते हुए कहा कि यदि वे बातचीत को आगे बढ़ाते हैं, तो हम भी तैयार हैं... जनअदालत में नौकरी छोड़ने के सवाल पर उन्होंने कहा कि पुलिस की नौकरी उनके परिवार के लिए रोजगार है, उसे छोड़ना उचित नहीं है...शायद सरकार समझ गई है नक्सल समस्या का हल उनके  बूते की बात नही है तभी तो सरकार ख़ामोशी से उनकी जन अदालतों में मौजूद रहती है,मानवाधिकार के लोग सारे सिद्धांतो को ताक पर रखकर अपनी दूकान चलाते रहना चाहते है...किसी ने रोटी की नही सोची;आखिर वो जवान जो महीने की सरकारी पगार पर बारूद के ढेर पर हर वक्त जान जोखिम में डाले रहते है उनका क्या होगा...? बस्तर में हालत कब सुधरेंगे कोई नही जानता,सरकार भी शायद नही चाहती हालात सुधरें तभी तो नक्सलियों की करतूतों पर हर बार कुछ कहकर कुछ ना कहना सरकार ने सीख लिया है....

Wednesday, February 9, 2011

सरकार के कई चेहरे


   ये विकास की अंधी दौड़ में शामिल
   छत्तीसगढ़ राज्य के होनहार बच्चो
   की तस्वीर है...ये कचरे में पैदा हुए
   या कचरे में जिन्दगी तलाश रहे है
   सरकार बताने को तैयार नही है...
  देश में शिक्षा की अनिवार्यता का कानून लागू है मगर वो क़ानून कागजो की सफेदी को खराब करने से ज्यादा नजर नही आता...तभी तो जिन बच्चो को शिक्षा के मन्दिर में भविष्य गढ़ना चाहिए वो कचरे के ढेर में जिन्दगी तलाश रहे है...नौकरशाहों को ऐसी तस्वीरे तकलीफ नही पहुचाती है क्योंकि उनके बच्चे हेरा-फेरी की रकम पर बड़े और इंग्लिश मीडियम स्कूलों में शिक्षा ले रहे होते है..कचरे में पेट की आग बुझाने का सामान इकट्ठा करते बच्चो की तस्वीर के नीचे लगी तस्वीर पर लिखा है "ईमान से बढकर कोई धन नही है" ये बस्तर के एक स्कूल की तस्वीर है जहाँ सेकड़ो बच्चे तालीम हासिल कर बस्तर के पिछड़ेपन की परिभाषा को बदलने की कोशिश में जुटे थे,मगर नक्सलियों को विकास की मुख्यधारा में आने से आज भी डर लगता है...बस्तर जैसे कई इलाको में खुद की सरकार चलाने का दावा करने वाले नक्सलियों ने स्कूल भवन को बारूद बिछाकर ध्वस्त कर दिया...इरादा साफ़ है बच्चे शिक्षा से दूर होंगे तभी उनके गिरोह में सदस्य संख्या बढेगी...जो आदिवासी बच्चे ईमान और विकास का पथ पढ़ रहे थे वो अब स्कूल बनाने वाले रहनुमा की तलाश कर रहे है...
 इस पोस्ट पर लगी हवलदार साहेब की तस्वीर जितनी छोटी नजर आ रही है समस्या उससे कई गुना बड़ी और गंभीर है...ये तस्वीर मैंने राष्ट्रीय उद्योग-व्यापार मेले के शुभारम्भ मौके पर ली थी..बिलासपुर में जनवरी महीने में चार दिनों तक मेले की धूम रही,करोडो रुपयों का व्यापार हुआ मगर इस तरह की तस्वीर में छिपी सच्चाई को समझने की कोशिश किसी ने नही की...घर की जिम्मेदारियों से लदे हवलदार साहेब मुख्यमंत्री की सुरक्षा में लगाये गए थे...मुख्यमंत्री के जाते ही ये अपनी मोटरसाइकिल पर बैठकर घर के लिए रावण हो गए...सिर पर अवाम की सुरक्षा वाली सरकारी टोपी,कंधे पर सरकार की दी हुई बदूक जो कभी चलाने का मौक़ा मिला ही नही और पुराने झोले में घर की जरुरतो का सामान...इस तस्वीर में वो बोझ और जिम्मेदारिय छिपी है जिसे हर इंसान समझ ले जरुरी नही है....  
 ये तस्वीर नक्सल इलाके सुकुमा के जंगल की है जहाँ बन्दुक की नोक पर सरकार चलाते नक्सली पंचायत लगाये बैठे है...बेकसूर लोगो के लहू से राज्य के कई इलाके लाल है मगर सरकार को उससे ख़ास फर्क पड़ता हो दिखता नही है...हर बार नक्सलियों से लोहा लेने की बाते,उनके बारूदी मंसूबो को ढेर करने की सरकारी कवायदे...सरकार की कोशिशो को चिढाती ये तस्वीर काफी कुछ कह रही है....

 २४ जनवरी २०११ को मैंने ट्रैन रोकने की कुछ फोटो उसलापुर रेलवे स्टेशन से ली...एक खड़ी मालगाड़ी के आगे भारतीय युवा मोर्चा के मुठ्ठी भर पदाधिकारी और कार्यकर्ता खड़े हो गए...हाथ में पार्टी के झंडे की बजाय चुनाव प्रचार में काम आया झंडा था...दरअसल ये लोग उस विरोध में प्रदर्शन का नाटक कर रहे थे जिसे केंद्र सरकार के इशारे पर रेल मंत्रालय ने किया था...२६ जनवरी को काश्मीर के लाल चौक में तिरंगा फहराने का आव्हान भारतीय युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने किया था...देश के हर कोने से पार्टी के कार्यकर्ता काश्मीर के लिए निकलने को तैयार हो गए...कई ने कोशिशे की तो कई ने केवल नाटकीय अंदाज में काश्मीर का आरक्षण रद्द होने का विरोध शुरू कर दिया...उसी की एक सच बयाँ करती दो फोटो कहने को काफी कुछ कहती है जरुरत है समझने की....

Friday, February 4, 2011

कानून पर चोट...

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में अपह्रत पाँच पुलिसकर्मियों के परिजनों ने ख़ुद जंगल में जा कर उन्हें तलाश करने का बीड़ा उठाया...आरुषि के पिता राजेश तलवार पर भरे अदालत परिसर में एक युवक ने हमला कर उन्हें लहूलुहान कर दिया...इसी युवक ने कुछ समय पूर्व रुचिका गिरहोत्रा मामले में अभियुक्त एसपी राठौर पर भी हमला किया था...कुछ समय पहले नागपुर में महिलाओं ने बलात्कार के दोषी युवक पर ताबड़तोड़ हमला कर उसे जान से मार दिया...दिल्ली में चोरी करते पकड़े गए एक व्यक्ति पर भीड़ ने हमला किया और उसे इतना पीटा कि वह मरते-मरते बचा...२ फरवरी को बिलासपुर आर.पी.ऍफ़.के कुछ अधिकारी चोर पकड़ने ग्राम पाली{लोरमी}गए जहां उन्हें बड़े ही सुनियोजित तरीके से घेर कर आरोपियों ने हमला कर दिया...उस घटना में एक हवालदार की मौके पर ही मौत हो गई वहीँ एक सब इन्स्पेक्टर ने अपोलो में दम तोड़ दिया...दो अधिकारियों का उपचार चल रहा है...इस वारदात को २४ घंटे ही बीते थे की ४ फ़रवरी की सुबह दबंगों की बौखलाहट देखने लायक थी...दरअसल ३ की रात को सिविल-लाइन पुलिस थाना की तिफरा पुलिस चौकी के एक हवालदार की कुछ सफेदपोशो ने धुनाई कर दी...इस मामले में अभी पुलिस को आरोपी कांग्रेस नेता राजेंद्र शुक्ल और उसके अन्य साथियों की तलाश ही थी की शाम होते-होते कोतवाली चौक पर यातायात के डी.एस.पी.इरफान खान को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के एक नेता ने तमाचा जड़ दिया...दबंग बनी खाकी लगातार हो रहे हमले से लाचार भी है और परेशां भी...जिन लोगो ने कानून हाथ में लिया वो कोतवाली में भीड़ लगाकर प्रदर्शन भी करते रहे...इन सब मामलों में एक ही बात समान है और वह यह कि लोगों ने क़ानून अपने हाथ में लिया या फिर यह कि उनका क़ानून और सुरक्षा व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा....सवाल यह नहीं है कि इन लोगों की कार्रवाई जायज़ थी या नाजायज़...सवाल यह भी नहीं है कि जिन लोगों पर हमला हुआ या जिन्हें निशाना बनाया गया वे दोषी थे या निर्दोष...सवाल यह है कि लोगों में यह भावना क्यों पैदा हो रही है कि इंसाफ़ नहीं हो पाएगा और वे सज़ावार को ख़ुद सज़ा देने की पहल करें...सवाल यह भी है कि लोगों का धैर्य क्यों चुकता जा रहा है...क्या लंबी अदालती कार्रवाई की वजह से? क्या उनकी सहायता के लिए तैनात पुलिस की लापरवाही की वजह से? या फिर इस वजह से कि उनके सब्र का बाँध टूट चुका है और उन्हें आशा की कोई किरण नज़र ही नहीं आ रही है....दरअसल मै जब भी ऐसे मामलो पर किसी नतीजे पर पहुचने की कोशिश करता हूँ तो कटघरे में खाकी नजर आती है...शहर में बढ़ते अपराध की वजह हो या फिर उनके बुलंद होते हौंसलो का जिक्र...क्योंकि पिछले कुछ दिनों में जिस तेजी से कानून के रखवालो की गर्दन को नापने की शुरुआत हुई है वो आने वाले वक्त के लिए शुभ नही है...