Thursday, October 27, 2011

चाय पी लीजिये बाबूजी एमकॉम की छात्रा ने बनाई है...

ये हकीकत बिलकुल भी नई नही है,ऐसे कई जरूरतमंद है जिनकी परवरिश खुद की मेहनत  के दम पर होती है ! मुझे लक्ष्मी की हकीकत और उसके संघर्ष की दास्ताँ काफी प्रेरणा  देती है ! झारखण्ड की राजधानी रांची में एक इसी जिन्दगी भी है जो मेहनत के दम पर ऊँची उड़ान का ख़वाब संजोये हुए है ! ये सच मुझे फेसबुक के जरिये पता चला जिसे मै अपनी पोस्ट पर लगाकर हमेशा इस तरह की मेहनतकश शख्सियत   से सीख लेता रहूँ,इसी उम्मीद के साथ...
  परिस्थितियां कुछ भी करने को विवश कर सकती हैं। और जब यह अच्छे के लिए किया जाता है तो लोग उसकी दाद देने लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही राजधानी रांची में लक्ष्मी नाम की लड़की आजकल कर रही है।गरीबी का शिकार लक्ष्मी की छोटी-छोटी आंखों में बड़े-बड़े सपने हैं। वो उन्हें टूटने नहीं देना चाहती। लक्ष्मी रांची के कोकर इलाके में चाय बेचती है। रांची वीमेंस कॉलेज में वो अभी एमकॉम पढ़ रही है। जींस और टॉप में चाय बेचते लोग उसे देखते रह जाते हैं।एक ओर जहां ग्राहकों के लिए वो लड़की एक आदर्श बन चुकी है वहीँ अपने परिवार के लिए लक्ष्मी। चाय बेच कर वो अपनी पढा़ई का खर्च तो निकाल ही ले रही है साथ ही परिवार का भरण पोषण भी कर रही है।चाय ही नहीं, बल्कि आदर की मिठास भी मिलती है पढा़ई के प्रति लक्ष्मी की यह लगन ही है कि उसने चाय बेच कर अपनी पढा़ई पूरी करने की ठान ली। एक झोपड़ीनुमा दुकान में तीन रुपये में गरमा-गरम चाय पीने बड़ी संख्या में लोग आते हैं। एक कारण यह भी कि यहां चाय ही नहीं मिलती बल्कि आदर की मिठास के साथ लगन भरा व्यवहार होता है।लक्ष्मी के पिता रामप्रवेश तांती एक प्राइवेट संस्थान में काम करते थे, लेकिन अब रिटायर हो चुके हैं। ऐसे में लगा कि अब लक्ष्मी की पढ़ाई बंद हो जायेगी, लेकिन लक्ष्मी ने ही आगे बढ़ कर कहा कि हम कुछ ऐसा करें जिसमे पूंजी कम लगे और परिवार के लिए आय भी हो जाय। फिर क्या था लक्ष्मी ने अपने पिता के साथ खोल ली एक छोटी सी चाय दुकान। हालांकि, एमकॉम में पढ़ रही बेटी को चाय दुकान पर बिठाना लक्ष्मी के पिता को अच्छा नहीं लगता। लेकिन मुफलिसी की मार और बेटी के हायर एजुकेशन का सपना टूट न जाय इसलिए लक्ष्मी खुद अपने निर्णय से चाय दुकान को चलाने लगी। पिता की नौकरी छूटे 15 साल हो गए। कमाऊ बड़ा भाई भी पिछले साल अकाल के गाल में समा गया। बचपन से पढा़ई में हमेशा अव्वल रहने वाली लक्ष्मी अपने परिवार वालों के सपनों को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहती। लक्ष्मी एमकॉम करने के बाद बैंक में पीओ बनना चाहती है। खाली समय में दुकान पर जब ग्राहक नहीं होते तो लक्ष्मी की पढ़ाई चलती रहती है। लक्ष्मी को कभी चाय दुकान पर ग्राहकों से कोई परेशानी नहीं होती। सभी इसके जज्बे को सलाम करते हैं।

Tuesday, October 25, 2011

...जग जीत गए "जगजीत"


न दिनों समझ आ रहा है कि किसी के चले जाने से एक युग का अंत कैसे हो जाता है। अभी-अभी तो स्टीव जाब्स गये थे, जगजीत भी नहीं रुके। एक ने तकनीक की दुनिया बदल डाली, तो दूसरे ने गजलों की परिभाषा। हमने तो गजलों को जगजीत सिंह की मखमली आवाज से ही समझा। जब भी उन्हें सुना, पूरा सुना। उन्हीं की गायी गजलों ने प्रेम के मायने समझाये। विरह की बेला में साथ दिया। मोहब्बत की चाहत से लेकर जुदाई के दर्द तक के हमराज बने। उन्हीं की आवाज की अंगुलियां पकड़ गजल की दुनिया में आये हम और आज वही हाथ हमसे छूट गया।
जगजीत की आवाज सुख की खुशी के साथ-साथ दुःख की उदासी में भी उतनी ही प्रिय लगती। मामला प्रियतम से विरह का हो या फिर मिलन का। गजलों के इस सम्राट को सुन भावनाएं हमेशा शीर्ष पर चली जातीं। गजल को आम लोगों के बीच लोकप्रिय कर जगजीत ने जग को तो जीत लिया लेकिन अब पता नहीं उनके जाने के बाद कौन कागज की कश्ती गुनगुनाएगा। अब तो बस यही याद आ रहा, ‘एक आह भरी होगी, हमने न सुनी होगी, जाते-जाते तुमने आवाज तो दी होगी…’
करीब ६ साल पहले जगजीत सिंह साहेब का बिलासपुर आना हुआ था।एक कांग्रेस नेता कहूँ या फिर बिल्डर या समाजसेवी,जो भी हो उन साहेब की होटल के शुभारम्भ मौके पर ग़ज़ल सम्राट शहर आये ! मैंने पहली बार उनको करीब से देखा और सूना ! काफी देर तक आँखों को यकीं नही हो रहा था की जो दिखाई दे रहा है वो हकीकत है ! वजह भी थी मुझे कभी भी ग़ज़ल सुनने का शौक नही था,मेरे परिचित या ये कहूँ की मेरे बड़े भाई कमल दुबे जी की संगत  ने  ग़ज़ल को सुनने और समझने की तकत दी ! मै उस रात ग़ज़ल ही सुनता रहा,कब रात भोर में बदल गई पता ही नही चला ! जगजीत सिंह  नही है,लेकिन कुछ यादे,कुछ बाते है जो हमेशा मुझे याद रहेंगी ! मुझे अच्छे से याद है एक बार मै कमल भैया के ऑफिस में बैठा था,रात की बैठकी थी सो लगभग सभी लोग मूड में थे ! बात बात में जगजीत सिंह की बात निकल आई,कमल जी ने कहा वो जगजीत फेंस क्लब के पुराने मेम्बर है ! मुझे उनकी बाते केवल लफ़ासी से ज्यदा नही लग रही थी ! एक मित्र ने हिलते डुलते कह दिया अरे यार - दुबे जी,इतना ही सच बोल रहे हो क्यूँ नही जगजीत साहेब से बात करवा देते ! बड़े ही सहज तरीके से कमल जी ने अपना मोबाईल फ़ोन उठाया,कुछ नामो की गिनती की और ये रहा जगजीत जी का नम्बर कह कर डायल कर दिया ! कुछ ही सेकेण्ड में उधर से एक महिला की हेलो कहने की आवाज,फिर दुबे जी का अपना पूरा परिचय देना सब कुछ नया सा था ! महिल ने जवाब दिया आप १० मिनिट बाद लगाइए वो बाथरूम में है ! फ़ोन काटकर कमल जी ने कहा ये उनकी पत्नी यानी चित्र सिंह थी...! मै दुबे जी को बिना पलक झपकाए देखता रहा ! ठीक १२ वें मिनट पर कमल भैया ने फिर उसी नंबर पर रीडायल किया और उधर से इस बार आई आवाज जगजीत सिंह की थी ! उन्होंने कम समय में अपनी उरानी बातो को विस्तार से बताया और ये कहते हुए मेरा परिचय मोबाइल पर करवाया की मै छत्तीसगढ़ के एक बहुत बड़े अखबार में काम करता हूँ,जबकि मै उस वक्त अम्बिकावानी नाम के एक दैनिक समाचार पत्र में लिखता था ! खैर झूठे परिचय के दम पर मैंने करीब ९ मिनट तक जगजीत सिंह से मोबाइल पर हमरदीफ़ गजलो के बारे में बात की ! फ़ोन काटने के बाद मै दुबेजी का ऐसा कायल हुआ की आज तलक उनकी हर बात को उतनी ही गंम्भीरता से लेता हूँ जितने हलके तरीके से मैंने जगजीत सिंह से बात करवाने वाली बात को लिया था ! 
  मैंने  न सिर्फ उनसे बातें की है  बल्कि उन्हें सामने बैठकर  पूरा सुना भी है ! उनको लाइव सुनने की याद अब तक जीवंत है। हां, एक बात का अफसोस रह गया। उन्होंने कहा था, मौका मिलेगा तो फिर छत्तीसगढ़ आऊंगा । हम सबकी यह तमन्ना अधूरी छोड़ ‘चिट्ठी न कोई संदेश … जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गये…’! खैर जग जीत कर "जगजीत" तो चले गये मगर उनकी यादे,वो मखमली आवाज हमेशा कानो में मिठास घोलती रहेगी !