Monday, December 26, 2011

अन्ना ...आगे नयी चुनौती !


रकार ने अन्ना की मांगों को शामिल करने की बजाय राजनीतिक दलों की मांगों का ध्यान रखा है. सरकार अन्ना की मुहिम को कांग्रेस की बजाय पूरी संसदीय व्यवस्था से जोड़ देना चाहती है.....कांग्रेस संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोकपाल के मसले पर पार्टी और सरकार के रुख को स्पष्ट किया. सोनिया गांधी ने लोकपाल पर लंबी लड़ाई लड़ने की बात दोहराते हुए विपक्ष और अन्ना को लोकपाल कानून स्वीकार करने की नसीहत भी दी. उनके लहजे से साफ़ हो गया कि अब सरकार लोकपाल के मसले पर झुकने को तैयार नहीं है और वह अन्ना आंदोलन से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है.
        सोनिया गांधी की बात से सरकार और अन्ना के बीच अब सीधी लड़ाई की संभावना बन गयी है. कांग्रेस के रुख में आये बदलाव की वजह लोकपाल पर सरकार और अन्य विपक्षी दलों के बीच कई मसलों पर सहमति होना है. आम राय बनाने के लिए सरकार लगातार विपक्षी दलों के संपर्क में थी. विपक्षी दलों की कई मांगों को मसौदे में शामिल कर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच असहमति को कम करने की कोशिश की गयी.....लोकपाल के गठन और चयन में 50 फ़ीसदी आरक्षण और सीबीआइ को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर कमोबेश सभी राजनीतिक दल सहमत हैं. सरकार ने जानबूझकर 50 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी, जबकि ऐसा प्रावधान किसी भी संस्था में अभी तक नहीं है. सरकार के इस फ़ैसले से कई विरोधी दल खासकर बसपा की रणनीति गड़बड़ा गयी है. अब बसपा भी लोकपाल का विरोध नहीं कर पायेगी. वहीं दूसरी ओर सीबीआइ के मसले पर सर्वदलीय बैठक में किसी भी राजनीतिक दल ने सीबीआइ को लोकपाल के दायरे में रखने की बात नहीं कही. सिर्फ़ सीबीआइ की स्वायत्तता का मामला उठाया गया...कोई भी दल नहीं चाहता कि सीबीआइ पूरी तरह स्वतंत्र तरीके से काम करे. दलों की इस भावना को समझते हुए सरकार ने लोकपाल के मसौदे में सीबीआइ के निदेशक की चयन प्रक्रिया को बदलने की बात तो शामिल कर ली, लेकिन इसे लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया. जबकि, टीम अन्ना की मांगों में सीबीआइ को लोकपाल के दायरे शामिल करना प्रमुख है.
इस मसले पर प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा का रुख भी स्पष्ट नहीं है. भले ही भाजपा मौजूदा बिल को कमजोर बता रही हो, लेकिन सीबीआइ के मामले पर वह अपना पत्ता नहीं खोल रही है. पार्टी का कहना है कि इस मसले पर वह सदन में अपनी बात रखेगी. अगर मौजूदा लोकपाल मसौदे पर संसद में सभी दलों की राय एक जैसी रही और यह विधेयक पास हो गया, तो सरकार का पलड़ा भारी हो जायेगा. इससे एक तरह से लोकपाल पर अन्ना भी सिर्फ़ आंदोलन भर बन कर रह जायेंगे.
लोकपाल बिल में संशोधन की जितनी बार अन्ना आवाज उठायेंगे, उसे संसद की सर्वोच्चता से जोड़कर उनकी धार को कुंद कर दिया जायेगा. सरकार जनमानस में यह छवि बनाने की कोशिश करेगी कि अन्ना की कई मांगों को स्वीकार करने के बावजूद वे गैरवाजिब मांग कर रहे हैं और इस तरह इस लड़ाई को संसद बनाम अन्ना कर दिया जायेगा.सरकार ने बड़ी चालाकी से, अन्ना और राजनीतिक दलों की मुख्य मांग प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में कर, दलों के बीच मतभेद को काफ़ी कम कर दिया. एक बार कानून संसद से पास हो गया तो इसका विरोध लंबे समय तक नहीं हो सकता है. लेकिन, अन्ना भी मंङो हुए रणनीतिकार हैं.
                                 अगर 30 दिसंबर से उनका जेल भरो कार्यक्रम सफ़ल हो जाता है, तो बाजी उनके हाथ आ जायेगी. अभी तक के उनके अनशन और आंदोलन को देखकर कहा जा सकता है कि अन्ना लोगों में यह भरोसा पैदा करने में सफ़ल होंगे कि सरकार का लोकपाल कानून कमजोर है और बार-बार के आश्वासन के बावजूद उनकी मांगों को दरकिनार कर दिया गया है. फ़िलहाल विपक्षी दलों के रुख को देखते हुए सरकार का पलड़ा भारी है.
सरकार के रवैये को देखते हुए अन्ना ने पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ़ प्रचार करने की घोषणा की है. जंतर-मंतर पर इसी महीने एक दिन के सांकेतिक अनशन में विपक्षी दलों की मौजूदगी से स्पष्ट होता है कि अन्ना आंदोलन में गैर कांग्रेसी दलों के एकजुट होने की संभावना है. 2जी, कॉमनवेल्थ घोटाले के कारण सरकार की साख वैसे ही निचले स्तर पर पहुंच गयी है. लोगों के बीच यह धारणा है कि कांग्रेस के साथ वही दल हैं, जो भ्रष्ट हैं. ऐसे में कांग्रेस विरोध में प्रचार करने की अन्ना की मुहिम से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ सकता है. हिसार उपचुनाव का नतीजा सामने है. अन्ना पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उनका विरोध कांग्रेस से नहीं है, वे सिर्फ़ सख्त लोकपाल कानून चाहते हैं. सरकार ने जो सिटीजन चार्टर विधेयक पेश किया है, उसमें भी कई खामियां हैं. जबकि अन्ना सिटीजन चार्टर को भी लोकपाल के दायरे में रखने की मांग करते हैं. ग्रुप सी और डी कर्मचारियों को सीवीसी के अधीन कर भी अन्ना की अहम मांग को दरकिनार कर दिया गया है.

Wednesday, December 21, 2011

बढ़ चला आंदोलन....

न्ना अभियान में एक नया मोड़ आ गया है, यह इसे निश्चित स्वरूप देने जा रहा है। अभियान आंदोलन की तरफ उन्मुख हो गया है। पिछले रविवार को एक दिवसीय धरने पर अन्ना के मंच पर आठ गैर-कांग्रेसी नेता आए। उनके बोलने से और मंच पर आने से दो अर्थ निकलते हैं, पहला अन्ना समूह अपने लक्ष्य को पाने के लिए संसदीय राजनीति का सहारा लेने जा रहा है। यह अपने आप में अन्ना अभियान के लिए नई बात है। दूसरा विपक्ष और अन्ना समूह में वास्तविक संवाद अब शुरू हुआ है।
              हम जानते हैं कि अन्ना समूह अराजनीतिक है, खुद अन्ना हजारे की छवि एक नैतिक नेतृत्व देने वाले की है। जन साधारण उन्हें आध्यात्मिक भी मानता है, क्योंकि वह कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि लोकहित की भावना से प्रेरित होकर मौजूदा राजनीति के मर्म पर चोट कर रहे हैं। वे राजनीति विरोधी नहीं हैं, लेकिन मौजूदा राजनीति को बदलने का उनके मन में संकल्प दिखता है। यह प्रयास वैसे ही है, जैसे पारस पत्थर लोहे को सोना बनाने के लिए करता है। इस नए बदलाव में विपक्ष को अपना भविष्य दिख रहा है। अन्ना अभियान इसलिए आंदोलन की ओर उन्मुख हो गया है, क्योंकि स्थायी समिति के मसौदे पर अन्ना के बयान ने वह रास्ता खोल दिया है। उन्होंने मसौदा आने पर कहा कि राहुल गांधी के हस्तक्षेप से कमजोर मसौदा लाया गया है। इससे कांग्रेस में खलबली मचनी थी और मची। कांग्रेस नेताओं के जैसे-जैसे बयान आए हैं, उससे यह साफ हो गया है कि अन्ना का तीर सही निशाने पर बैठा। 
                  अन्ना टोली के कई सदस्यों ने इस नए मोड़ से राहत की सांस ली है, वे पहले अपनी सांस अन्ना की चालों पर अटकी हुई महसूस करते थे। चूंकि अन्ना की अनेक चालें मनमौजी आदमी की होती थीं, आशंका जताई जाती थी कि उन्हें महाराष्ट्र के कांगे्रसी नेता प्रभावित कर लेते हैं। अन्ना और कांग्रेस में खुला खेल फर्रूखाबादी छिड़ गया है। इससे यह खतरा कम हो गया है कि कोई कांग्रेसी उन्हें प्रभावित कर सकेगा। अन्ना ने राहुल गांधी को निशाने पर लेकर जो अब तक की सबसे महत्वपूर्ण बात कर दी है, वह यह नहीं है कि लोकपाल का स्वरूप कैसा हो, बल्कि यह है कि इस बहस को उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के पाले से खींचकर कांग्रेस के आंगन में पहुंचा दिया है।बिना कहे अन्ना ने साबित कर दिया कि दरअसल मनमोहन सिंह फैसला नहीं करते हैं, फैसला तो सोनिया गांधी करती हैं और राहुल गांधी उसमें हस्तक्षेप करते हैं! यह स्पष्ट होते ही इसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े हो जाते हैं। अन्ना ने ऎलान कर दिया कि मजबूत लोकपाल नहीं बना, तो पहले विधानसभा चुनाव में और फिर लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के खिलाफ प्रचार की कमान संभालेंगे। चुनावी महाभारत की यह रणभेरी इसी ऎलान से निकल रही है। जिसे कांग्रेस से ज्यादा दूसरा कौन समझ सकता है। 
             इसके दबाव में प्रधानमंत्री ने आनन-फानन में सर्वदलीय बैठक बुलाई, जिसमें उन्होंने कहा कि यह विधेयक आम सहमति से पारित हो और इसमें दलीय राजनीति नहीं होनी चाहिए। मनमोहन सिंह अपनी ओर से यह वादा कर सकते हैं कि वे दलीय राजनीति नहीं करेंगे, लेकिन जब सर्वदलीय बैठक हो रही है, तो वहां संन्यासी नहीं बैठे हैं, वहां नेता बैठे हैं, जिनके सामने दलीय राजनीति से बड़ा कोई मुद्दा है ही नहीं, इसीलिए उस लंबी सर्वदलीय बैठक में आम सहमति नहीं बनी।तो अब रास्ता क्या है? सीधी-सी बात है सरकार अपना चेहरा बचाने के लिए संसद के इसी शीतकालीन सत्र में विधेयक लाकर कह सकती है कि हमने अपना वादा पूरा किया। सरकार चाहे तो 22 दिसम्बर तक इस विधेयक को पारित करवाकर जनता की निगाह में अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहेगी। 
              अब सरकार जिस तरह का विधेयक लाएगी, उसके कुछ संकेत मसौदे में हैं और कुछ बातचीत में उभरे हैं, सीबीआई को सरकार अपने नियंत्रण मे रखना चाहेगी। मुझे याद है और यह बहस पुरानी है और जब यह छिड़ी थी, तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था, 'केन्द्र सरकार अगर सीबीआई को अपने अघिकार क्षेत्र से बाहर कर देती है, तो शासन का कोई मजबूत उपकरण उसके पाeस्त्रiह्लश्riaद्य ह्यpeष्iaद्यस बचेगा नहीं।' यही सोच कांग्रेस की और सरकार में बैठे नेताओं की है। कोई दूसरी पार्टी सत्ता में होती, तो वह भी सीबीआई को नियंत्रण से बाहर नहीं होने देती।  
   लोकपाल के मसौदे पर सीबीआई सहित बहुत सारे बिन्दुओं पर गंभीर असहमति है और इसकी संभावना बहुत कम है कि मनमोहन सरकार इतनी झुक जाए कि विपक्ष और अन्ना हजारे की सारी बातों को मान ले। इसलिए परिणाम यह होगा कि  लोकपाल से ही बहुत दिनों बाद इस देश में राष्ट्रीय राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद का माहौल पैदा होगा। यूपीए विरोधी एकता को किसी भी नजरिये से आप देखें, कहा जा सकता है कि यह चुनावी एकता होगी और यह एकता यूपीए का बाजा बजा देगी ! लोकपाल पर अन्ना ने घोषणा की है कि उसके मनमाफिक विधेयक पारित नहीं हुआ, तो 27 दिसम्बर से पुराने गवालिया टैंक मैदान पर अन्ना आमरण अनशन पर बैठेंगे। वह अब आजाद मैदान कहलाता है। उसी मैदान से 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने दो नारे दिए थे, करेंगे या मरेंगे और अंग्रेजों भारत छोड़ो। उस नारे को याद दिलाता हुआ अन्ना का अनशन नई राजनीति की घोषणा कर सकता है। लोकपाल का विषय ही ऎसा है, जिस पर आम सहमति कठिन है और इस समय तो असंभव दिखती है। चनुावी राजनीति ने लोकपाल को अब व्यापक राजनीति का हिस्सा बना दिया है और अब लोकपाल से आगे अन्ना हजारे और विपक्ष दो मुद्दे उछालेंगे, पहला चुनाव सुधार का और दूसरा व्यवस्था परिवर्तन का। इसी अर्थ में अन्ना का आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन का स्वरूप ग्रहण कर सकता है। 

...अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर की तरह बनें

तीन लड़कियों ने एक साथ आत्महत्या की', 'दो युवा भाइयों की मौत से घर उजड़ा', आए दिन अखबारों के ये शीर्षक सुर्खियों में रहते हैं। ये सुर्खियां हमारे भीतर आकस्मिक भय और घबराहट उत्पन्न करती हैं। मनोवैज्ञानिक लक्षणों के चलते आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं जो चेतावनीसूचक है। वो दिन हवा हुए, जब माता-पिता बच्चों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करते थे। बच्चे मटरगश्ती करते रहते थे, पतंग उड़ाने में मस्त रहते थे, पड़ोसियों की नकल उतारते रहते थे और अपने आप में मग्न रहा करते थे। जिन्दगी का सामान्य आनन्द व  अनुभूतियां अब सिर्फ प्रेमचंद के उपन्यासों और कॉल्विन या डेनिस के कार्टून चरित्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं। यह कष्टकारक है। आज के माता-पिताओं की ख्वाहिश होती है कि उनके बच्चे अब्दुल कलाम, सचिन तेंदुलकर और सलमान खान की तरह बनें।
              शताब्दी के बदलने के साथ ही काफी कुछ बदला है। ज्यादा जागरूकता उत्पन्न हुई है, वैश्विक बाजार खुला है और मीडिया के प्रचार से लोगों की जरूरतों में इजाफा हुआ है तथा व्यक्तिगत रूप से लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं। हर कोई भाग-दौड़ और जल्दी में है, तेज और दु्रतगति से आर्थिक एवं सामाजिक सफलता की सीढियां मापने की कोशिश में है। अंधी दौड़ और सफलता की होड़ का यह पुलिन्दा सुव्यवस्थित ढंग से हावी है और इसे लाखों तरह के दबाव के बोझ के रूप में निरूपित किया जा सकता है। यह परिदृश्य केवल प्रौढ़ लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी चपेट में किशोर और बच्चे तक आ रहे हैं। 
            दबाव, थकान या तनाव को परिभाषित करना मुश्किल है लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह हमारे शरीर और मस्तिष्क पर असर डालता है। बचपन के दबाव के कारण विविध प्रकार के होते हैं। ऎसे नाजुक समय में, जबकि बच्चे को अपने माता-पिता का भरपूर समय और कोमल अपनत्व मिलना चाहिए, वह आया या क्रेच की देखरेख छोड़ दिया जाता है। माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए कोई समय नहीं होता है और वे इस अपराध बोध से छुटकारा पाने के लिए बच्चे की गैरजरूरी मांगों को पूरा कर देते हैं जबकि इस तरह की मांग को प्यार से फुसलाकर दूसरा रूप दिया जा सकता है।
      दूसरी ओर, माता-पिता अपने बच्चे से ज्यादा उम्मीद कर बैठते हैं। वे बच्चे में उसका व्यक्तित्व नहीं, बल्कि उसमें खुद का विस्तारित रूप देखते हैं। अभिजात लोगों के साथ रहने से दबाव का स्तर बढ़ता है। हम जब अभिजात दबाव के के बारे में विचार करते हैं तो यह अभिजातीय दबाव न केवल क्लासरूम से पड़ता है बल्कि टीवी पर दिखाए जाने वाले अवास्तविक और कभी-कभी बेवकूफी भरे विज्ञापन देखकर भी उत्पन्न होता है। एक सांस्कृतिक संभ्रम की स्थिति शहरों में फैल रही है जहां माता-पिता की अपेक्षा होती है कि उनके बच्चे पश्चिम के सांस्कृतिक वातावरण और पूर्व के नैतिक मूल्यों से ओतप्रोत हों। निस्संदेह, दबाव जीवन का एक अपरिहार्य पहलू है और वास्तव में इसका कुछ हिस्सा प्रेरणा प्रदान करता है लेकिन ज्यादा स्तर के दबाव से 'आउटपुट' पर असर पड़ता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का कारण बनता है। चिकित्सकों का वर्ग दबाव को जीवनशैली से जुड़ी बीमारी मानता है। इसके अलावा बच्चों में मनोवैज्ञानिक जनित समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। इनमें उदासी, अवसाद, पलायनवाद, हाइपरवेंटीलेशन, सिरदर्द आदि से जुड़ी बीमारियां हैं और यह आत्महत्या की तरफ झुकाव को बढ़ाने वाला होता है।  
'शिक्षक-शिक्षण' सम्बन्ध भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, अध्यापक इंस्ट्रक्टर (उपदेशक) हो गए हैं और वे पढ़ाने के बजाए कोचिंग में रूचि ले रहे हैं। इसमें युवाओं को ज्ञान देना और उनमें विश्वास  उत्प्रेरण के स्थान पर व्यक्तित्व विकास की शिक्षा देना भी शामिल है। गुरू की परिभाषा की समुचित रूप में इस प्रकार व्याख्या की गई है-'गु' यानी कि अज्ञानता और 'रू' यानी अज्ञानता को नष्ट करने वाला। बहुत ही अल्प अवधि में कोचिंग इंस्टीट्यूट्स और व्यापारिक शैक्षणिक संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ी है। शिक्षा के अधिकार के जमाने में इन्हें अपना रवैया बदलने और बदलाव लाने की जरूरत है। शिक्षा, प्रवीणता और दक्षता देने के लिए उन्हें अपने उद्देश्य को प्राथमिकता पर रखना होगा। इससे इन संस्थाओं के संचालक सिर्फ मालामाल होने की अपेक्षा स्वास्थ्य व समृद्धता के भी हितकारी बनेंगे। 
   व्यक्ति के जीवन में किशोरवय की अवधि सर्वाधिक दबाव का काल होती है। वे तरूणाई के दौर से गुजर रहे होते हैं, दूसरे की उम्मीदों की चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं और उन्हें जो नया लगता है, उसकी नकल कर रहे होते हैं। करियर सम्बन्धी कोई भी निर्णय उन पर थोपना नहीं चाहिए, बल्कि उनकी योग्यता और इच्छा को भी ध्यान में रखना चाहिए। उन्हें यह अहसास कराना जाना चाहिए कि उन्हें प्यार किया जाता है और वे समाज के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। इससे उनका दबाव कम हो सकता है। उनकी छोटी-मोटी अवज्ञाओं को नजरअंदाज करना चाहिए और उन्हें महसूस कराना चाहिए कि वे उच्च क्षमताओं से सम्पन्न हैं।  छोटी उपलब्धियों को भी भरपूर तरजीह दी जानी चाहिए, विफलता पर प्रोत्साहक रवैया अपनाना चाहिए। प्रोत्साहक गतिविधियों से उनमें आनन्द का संचार होता है। दबाव कम करने की दिशा में यह प्रभावकारी उपाय है। माता-पिता को सबसे पहले खुद का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। 
 मुख्य बात यह समझने योग्य है कि बच्चा एक व्यक्तिगत इकाई है और उसके अपने अधिकार हैं। उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि वे महत्वपूर्ण हैं। उन्हें सुरक्षित, मजबूत, घरेलू और विश्वसनीय वातावरण व घर उपलब्ध कराना चाहिए।   

Friday, December 9, 2011

इलाज से लेकर पोस्टमार्टम तक...!!!

डेढ़ दशक से ज्यादा की पत्रकारिता में मैंने जितना देखा,जितना लिखा उस लिहाज से लोग मुझे "नेगेटिव" पत्रकार कहने लगे ! हो सकता है मेरी सोच आज के जमाने की सोच पर फिट नही बैठती हो मगर मै संतुष्ट हूँ की मैंने जो देखा उसे ही जनता के पेशे-नजर किया ! पिछले एक महीने से छत्तीसगढ़ की ऊर्जा-नगरी कोरबा में हूँ ! जिस शहर ने मुझे नाम दिया,पहचान दी...जिस शहर को मैंने आँखों के सामने महानगरीय अमलीजामा पहनते देखा उसे ना चाहते हुए भी ९ नवम्बर से छोड़े आया हूँ  ! नए साथियों के साथ नए शहर में जनता की बरसो पुरानी जरूरतों की हकीकत जानने की कोशिशे जारी है ! एक महीने में जो दिखा उस लिहाज से कहूँ तो बात फिर से मेरी नेगेटिव सोच वाली आ जाएगी.मगर हकीकत है की छत्तीसगढ़ जैसे विश्वसनीय प्रदेश में कोरबा जिले के लोग जिन छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मोहताज है वो इस प्रदेश के सियासतदारो के असली चेहरों को बेनकाब करती  है ! इस पोस्ट पर मै केवल जिला अस्पताल के बारे में थोडा बहुत लिखूंगा जो सरकार की स्वास्थय निति पर सवाल खड़े करने के लए काफी होगा.....!!! 
                     कोरबा के १०० बिस्तर वाले जिला चिकित्सालय के कई नाम है,कोई हंड्रेड बेड तो कोई इंदिरा गाँधी अस्पताल के नाम से जानता है,पुकारता है ! अस्पताल सरकारी है लिहाजा रसूखदारों को "१०० बेड" से ज्यादा उम्मीदे नही होती...जिन गरीबो ने इंदिरा गाँधी जिला चिकित्सालय की चौखट को मंदिर समझकर भीतर प्रवेश किया उन्हें वो तारीख अब भुलाये नही भूलती.....किसी की माँ तो किसी बहेन ने भाई खो दिया ! कोई अपने पति को लेकर जिला अस्पताल  आई तो आँखों में जिन्दगी बच जाने की उम्मीदे थी मगर मांग से सिंदूर का रंग मिटने में वक्त नही लगा....जिला चिकित्सालय में कई ऐसे बाप भी आये जिन्होंने वक्त से पहले बेटे की अर्थी को कंधा दिया.....मामूली घाव से लेकर गंभीर बीमारी तक में बरती जा रही लापरवाही ने कई आशियानों में मातम का परचा भेज दिया,मगर जिम्मेदार चिकित्सक हमेशा बचते रहे ! मै जिस जिला अस्पताल की सरकारी वयवस्था पर वक्त जाया कर रहा हूँ उसे "आई.एस.ओ."का दर्जा हासिल है ! आप समझ सकते है  ऊर्जा नगरी का जिला अस्पताल सरकारी रिकार्ड में कितनी गुणवत्ता युक्त है.....हकीकत मैंने अपने साथियों की नजरों के अलावा खुद भी एक दिन जाकर देखी ! हालत मेरे मुताबिक़ काफी बुरे है,जो भोग रहे है या फिर भुगत चुके है वो मेरे से सहमत होंगे....१०० बिस्तरों वाले अस्पताल के अधिकाँश बिस्तर खाली पड़े रहते है,सरकारी दवाइयां या तो झोला छाप डाक्टरों को बेच दी जाती है या फिर सरकारी अस्पताल के डॉक्टर साहेब के निजी क्लिनिक में पहुंचकर गरीबो की सेहत का ख्याल रखती है !
                                         इलाज से लेकर पोस्टमार्टम तक अव्यवस्था .....सांस चलने से लेकर उखड़ जाने तक इंसान की फजीहत....सरकारी तनख्वाह पर खुद के क्लीनिको में इलाज के बहाने रुपये बटोरने का खेल.....जिंदगी बचाने की बजाय रिफर का परचा लिखने वाले डाक्टर खुश है,मातम तो उन घरों में पसरा है जहां उम्मीदों ने आते ही दम तोड़ दिया.....मगर हकीकत से सरकार के मंत्री या जिला प्रशासन के लोग वास्ता नही रखना चाहते तभी तो "आई.एस.ओ."का दर्जा हासिल जिला अस्पताल की खामियों को ठीक करने की बजाय स्वास्थय मंत्री अमर अग्रवाल ने ३० नवम्बर को मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों के समक्ष जिन स्वास्थय सुविधावो का सरकारी पठन-पाठ किया वो गरीबो का मजाक उड़ा गई.....इतना ही नही जिले को ५ संजीवनी एक्स्प्रेस दे गए ताकि गरीबो का खून चूसने वाले डॉक्टर और फल-फुल सके......मेरे चैनल में काम करने वाले सहयोगी ने संजीवनी की निकली हवा की पोल तीसरे ही दिन खोल दी.....जिला अस्पताल के एक डाक्टर साहेब ने संजीवनी की सुविधावो को अपने निजी क्लिनिक के लिए लगा रखा था....सरकार की संवेदन शीलता पर सवाल खड़े हुए तो कलेक्टर साहेब की बंद आँखे खुल गई....उन्होंने जांच टीम और ना जाने क्या क्या सरकारी भाषा में कह दिया ....! साहेब को लगता है पहली बार लगा सरकारी सुविधावो का दुरूपयोग होने की भनक लगी...एसा मै कहूँगा तो गलत होगा क्यूंकि साहेब को इस बार भी गरीबो के स्वास्थय का नही सरकार की सरकारी संजीवनी का ख्याल था तभी तो जांच टीम और ना जाने क्या...क्या...?
                                       आदिवासी बाहुल्य कोरबा जिले में स्वास्थय सुविधावो का अब तो भगवान् भी मालिक बनने से इनकार कर दे मगर कई चिकित्सक जिन्हें गरीब अब राक्षस और लुटेरा कहने से नही चुकते वो मसीहा बनने का दावा करते घूम रहे है....!!!! न जाने क्या होगा उन आदिवासियों का जो जिन्दगी बच जाने की आस में कभी घर बेचते है तो कभी खेत के टुकड़े को बेचकर खून के रिश्तो को सांस देने की कोशिश करते है......!!!!!!