Sunday, January 9, 2011

शिक्षा का रंग कितना बेरंग


तस्वीर नई है लेकिन सच पुराना है...ये वो हकीकत है जिसको अक्सर सरकार 
और सरकारी नौकर दोनों मानने से साफ इनकार कर देते है...सरकारी स्कूलों 
में शिक्षा व्यवस्था का हाल कैसा है,सोचता हूँ बताने की जरुरत नही है...शहर और गांवो की सरकारी स्कूलों के पट खुलते है,अच्छी-खासी तन्खवाह लेने वाले शिक्षक मनमर्जी के मालिक होते है...स्कूल पहुंचकर शिक्षक बच्चो को पढ़ाने के अलावा सभी काम बड़ी ही ईमानदारी से करते है...नतीजतन बच्चे स्कूल आकर मध्यान्ह भोजन का इन्तजार करते है...अधिकांश स्कूलों में नजारा कुछ ऐसा ही होता है जैसा सच तस्वीर कह रही है...यानि बच्चे स्कूल आकर सबसे पहले साफ़-सफाई करते है,इसके बाद सरकारी भोजन को बनाकर पेट भरने का क्रम शुरू होता है..बच्चो की दर्ज संख्या के अनुपात में सरकारी अनाज बोरे से बाहर निकाला जाता है...करीब-करीब हर स्कूल में गैर-हाजिर बच्चे के नाम से भी राशन पकता है....जो काम स्वयं-सहायता समूहों को दिया गया वो काम भी बच्चे करते है...सब्जी काटने से लेकर पका भोजन परोसने तक का काम बच्चे करते है....बस्ते में रखी सरकारी पुस्तके किसी कोने में पड़ी होती है...भोजन बनते ही उन बस्तों से पुस्तको के बीच रखी थाली बाहर निकाल ली जाती है...अधपका खाना पेट में जाते ही बच्चो के मुह से बहाने उलटी करने लगते है...मतलब भोजन ख़त्म,पढाई ख़त्म...इन तमाम बातो से स्कूल के गुरूजी को कोई फर्क नही पड़ता,पड़े भी क्यों...गुरूजी पढ़ाने की नही स्कूल आने की एवज में सरकार से मोटी रकम लेते है...क्योंकि उन्हें या उस विभाग से जुड़े किस भी आदमी को शर्म होती तो तस्वीर ऐसी नही कुछ और ही कहानी बयाँ करती...सवाल तो शर्म पर आकर ही दम तोड़ देता है...क्योकि अब बेशर्मो की भीड़ में पानीदार व्यक्ति की तलाश करना बड़ा मुश्किल काम है....जो बच्चे तकदीर गढ़ने स्कूल आते है वो काम पर लगा दिए जाते है,काम चाहे झाड़ू लगाने का हो या फिर खाना पकाने का....करीब डेढ़ महीने बाद परीक्षाये शुरू हो जाएँगी,गुरूजी के काम में जो टॉप पर होगा उसकी मार्कशीट में उतने ही अधिक नंबर होंगे...सरकारी स्कूल है,सरकार को स्कूल के परीक्षा परिणाम से मतलब है और परिणाम गुरूजी के हाथ में है....ऐसे में तस्वीर के बदलने की उम्मीद बेईमानी सी लगती है....
                                   मैंने शहर और आस-पास के कई स्कूलों की बदहाली और उससे जूझते बच्चो को देखा है....वो बदहाली जिले के अधिकारियो को दिखाई पड़ती है लेकिन उसे ठीक करने की कोशिशे धरातल पर साकार होती कम ही नजर आती है....छत्तीसगढ़ सरकार वैसे तो कई मायनो में संवेदनशील है,जिले का मुखिया यानि कलेक्टर पिछले दो बरस से पेड़-पौधे लगवा रहा है...हरा-भरा जिला,ये सोच कलेक्टर सोनमणि बोरा की कवर्धा में भी देखने को मिली थी....सारे पौधे सुख गए,हाँ लिम्का बुक में साहेब का नाम जरुर दर्ज हो गया...कुछ वैसी ही कोशिशे बिलासपुर जिले में जारी है....साहेब को इससे ज्यादा इतेफाक नही की सरकारी स्कूलों में शिक्षा का क्या हाल है..? विभाग का अधिकारी है वो कुछ करने को तैयार नही है...ऐसे में सरकार स्कूल की बच्चियो को चाहे साइकिले बाँट ले या फिर मुफ्त में शिक्षा दे....जब तक जमीनी व्यवस्था नही सुधरेगी तब तक सरकार की तमाम कोशिशे केवल और केवल सरकारी कागजो पर रंगीन नजर आयेंगी....

4 comments:

  1. गाँव के बच्चों को आगे जा कर मजदूरी ही करनी है शायद शिक्षक की सोच इतनी ही हो?

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  2. @kamal ji...Kamal ji sahi kaha aapne.. Aur teachers ki soch itni isliye hai kyunki ve apne aapko kabil nahi mante hai... Unhe apni kamjoriyo aur kamiyo par pura bharosa hai... Unka dil unhe bar- bar shayad yahi kahta hai ki "Tum kisi bacche ki zindagi kya banaoge, jab tumhe apni zindagi ke mayne hi nahi malum." Un sikchhako ka apne prati avishwas hi hai jo aaye din aisi ghatnao ko paridit karta rahta hai.Darasal, Humare sikchhako ka ye vishwas hai ki ve sirf isi kabil hai ki bachho ko sirf majduri karna sikha sake, jo wastav mai unhe sikhane ki bhi jarurat nahi, Bachho ko khud hi aati hai...

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  3. teacher ki soach tasvir se jayada achi nahi hai

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