Sunday, November 20, 2011

‘बिना दांत के शेर’

भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष के रूप में न्यायविद मार्कंडेय काटजू का संभवत: पहला बयान भारतीय मीडिया और समूचे मीडिया-कर्म के लिए सीधी चुनौती है। इसके साथ ही यह आत्म-निरीक्षण और आत्म-विश्लेषण का कारण भी है। भारतीय प्रेस परिषद को ‘बिना दांत के शेर’ वाली भूमिका से आगे ले जाने के लिए यह वक्तव्य प्रस्थान बिंदु भी हो सकता है। जस्टिस काटजू ने कुरदने वाले तथ्य कहे हैं। लेकिन उनका वक्तव्य हकीकत का भी बयान है। प्रेस परिषद देश की संसद द्वारा गठित भारतीय प्रेस की नियामक संस्था रही है। प्रेस यानी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं से आगे अब भारतीय मीडिया की दुनिया वैश्विक हो गयी है। रेडियो, टेलीविजन और न्यू मीडिया, सोशल मीडिया जैसे प्रभावी माध्यमों ने पूरे भारतीय मीडिया परिदृश्य को बदलकर रख दिया है।
जस्टिस काटजू जब यह कहते हैं, ‘देश में, देश के बुद्धिजीवियों, सरकार, प्राइवेट सेक्टर सभी में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि मीडिया का एक खास वर्ग अपने कार्य-व्यवहार में अत्यंत गैरजिम्मेदार हो गया है। वह गलत सूचनाएं देने, गलत रिपोर्टिग करने के साथ ही वस्तुस्थिति को सनसनी के रूप में पेश करता है’, तो यह बात बहुत से लोगों को काफी तथ्यपरक लगती है। साथ ही जस्टिस काटजू यह भी जोड़ देते हैं कि ‘मीडिया के लोगों के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। मुझे नहीं लगता कि उन्हें आर्थिक नीतियों, राजनीतिक सिद्धांतों, साहित्य और दर्शन शास्त्र की जानकारी होती है।’ ज्यादा विवाद उनके वक्तव्य के इसी अंश को लेकर है।
जस्टिस काटजू की टिप्पणियों को लेकर उठा विवाद उनके इस ताजा बयान से चरम पर पहुंचना स्वाभाविक है, जिसमें उन्होंने कहा, ‘मीडिया अपने अंदर भी झांक कर देखे। मीडिया लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने और समाज की बुराइयों से परिचित कराने की अपनी भूमिका से विमुख हो चुका है। उसे अपना आत्म-मूल्यांकन करना चाहिए।’ इस पर एडीटर्स गिल्ड के महासचिव की प्रतिक्रिया भी काबिले गौर है, ‘काटजू उन लोगों के प्रति बहुत ही अपमानजनक रवैया अपना रहे हैं, जिनके साथ उन्हें अगले तीन वर्षों तक काम करना है।’ यह इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में प्रेस परिषद की भूमिका और कार्य कठिनाइयों से भरा हो सकता है।
काटजू का बयान सुर्खियों में है और उनके बयान को इंटरनेट सोशल मीडिया पर काफी समर्थन मिल रहा है। ऐसी ही यह एक टिप्पणी मीडिया के लिए सीधी चुनौती है, ‘मीडिया का बरताव जर्मनी के तानाशाह हिटलर की तरह है। वह बिना किसी पुख्ता जानकारी के कुछ भी प्रसारित कर देता है।’ समाचार चैनलों की स्व-नियामक संस्था नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के प्रमुख न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने प्रेस परिषद को ‘भावहीन और अपने मकसद में नाकामयाब’ करार देते हुए इसे बंद या भंग कर देने का सुझाव दिया है, जिसके दूरगामी भाव स्पष्ट हैं। इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी ने तो इससे भी आगे बढ़कर कहा है कि मीडिया संबंधी काटजू की टिप्पणी ‘गहरे पूर्वाग्रह से प्रेरित है। काटजू का लोकतंत्र के चौथे खंभे के प्रति यह पूर्वाग्रह साफ झलकता है।’
केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री ने इस सिलसिले में बस इतना ही कहा है कि ‘सरकार की प्रेस की आजादी पर किसी तरह की रोक लगाने की कोई योजना नहीं है। सरकार मीडिया के लिए स्व-नियंत्रण व्यवस्था चाहती है, ताकि वह अधिक संवेदनशीलता से काम करे और मीडिया ट्रायल तथा व्यक्ति विशेष की निंदा से परहेज करे।’ पर प्रेस परिषद की भूमिका और भविष्य के बारे में सरकार का मत साफ न होना चिंता का विषय है।
मीडिया का एक वर्ग जस्टिस काटजू की टिप्पणियों को नकारात्मक, तो दूसरा, ‘जल्दबाजी में किया गया आकलन’ मानकर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। एडीटर्स गिल्ड इन टिप्पणियों को ‘पत्रकारों पर की गयी तथ्यहीन एकतरफा और पूर्वाग्रह से ग्रस्त करार’ दिया है, जो गंभीर विचार व बहस का मुद्दा होना चाहिए। प्रेस परिषद के अध्यक्ष की दृष्टि में मीडिया देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने का काम करता है, एडीटर्स गिल्ड इसे निराधार मानते हुए कहता है, ‘मीडिया ने देश को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।’ एडीटर्स गिल्ड की यह दृष्टि तार्किक है कि वस्तुत: ‘प्रेस की स्वतंत्रता सत्ता में बैठे लोगों के विरुद्ध जनता की शक्ति’ है। परंतु प्रेस परिषद को और अधिकार संपन्न बनाये जाने पर खुद मीडिया की पुरानी मांग को गिल्ड ने ‘सरासर गलत-अनावश्यक’ और ‘मीडिया में भय पैदा करने’ का प्रयास मानकर समूची बहस को एक नया मोड़ दे दिया है। ‘बिना दांत का शेर’ एक बार फिर वैचारिक बहस के कठघरे में है।
इसके आगे भी प्रश्न अनेक हैं। साख और सरोकार पत्रकारिता की मूल थाती रही हैं और आज भी साख की पूंजी के बूते ही पत्रकारिता समाज व भारत जैसे लोकतंत्र की धुरी है। पत्रकारिता में कभी कुछ ‘पेड’ नहीं था, अब सब कुछ ‘पेड’ है। तथ्यों की सत्यता, भाषा के मानकों और दूसरे सवालों-सरोकारों से अलग ‘सबसे आगे’ रहने की होड़ ने उसकी साख को कठघरे में खड़ा किया है। उत्तर प्रदेश से एक उदाहरण लें। 1970-80 के दशक में एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने लगातार एक वरिष्ठ महिला आईएएस अधिकारी के बारे में उनके एक से अधिक पति होने की खबरें छापीं। जांच के बाद सारे तथ्य झूठ निकले। पत्र को अपने मुखपृष्ठ पर ‘सेकेंड लीड’ छापकर माफी मांगनी पड़ी। 1990 के दशक में ही वाराणसी का चर्चित संवासिनी कांड मीडिया द्वारा सृजित कांड साबित हुआ। इस कांड ने कितनों के घर बरबाद किये, कितनों को जेल भेजा और बाद में सीबीआई की जांच में सारा मामला ही गलत पाया गया। जिनकी, जो क्षति हुई, क्या उसकी भरपाई हुई?
इसी प्रकार दिल्ली के प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्र में एक सांसद के बारे में खबर छपी – ‘बिहार एमपी डज नॉट नो हाऊ मेनी स्पाउसेस ही हैज’ यानी ‘बिहार के सांसद को पता नहीं कि उनकी कितनी पत्नियां हैं।’ बाद में इस खबर के लिए प्रथम पृष्ठ पर माफी मांगी गयी और साथ ही उनके परिवार के लोगों, मित्रों तथा समर्थकों को हुए कष्ट के प्रति खेद व्यक्त किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने आरुषि मर्डर केस में भारतीय मीडिया को ‘सेंसेशनलिस्ट मीडिया’ करार दिया था।
जस्टिस काटजू ने जो सवाल उठाये हैं, उनका जवाब सिर्फ बयान से नहीं, बल्कि आत्म-निरीक्षण के बाद अपनी कार्य-प्रणाली को पारदर्शी बनाकर देना होगा। मीडिया जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा है। इसलिए कठोर समीक्षा और अग्निपरीक्षा के दौर से गुजरने के लिए खुद को तैयार करना ही होगा। इससे परहेज न तो किया जा सकता है, न किया जाना चाहिए।