Sunday, October 24, 2010

समर्पित शख़सियत...डॉक्टर खैरा

                                                                                                                                                                                                              आज जहाँ इस भोतिकतावादी ज़माने में चारो ओर स्वार्थ और मक्कारी का बोलबाला है..पिता-पुत्रहो या भाई-भाई,सारे रिश्ते कही-ना-कही स्वार्थपरक को प्रस्तुत करते है...वही एक शख्स ऐसा है जिसने मानवता की भावना को फलीभूत करते हुए 'वसुधेव कुटुम्बकम' के सिद्धांत को अपने आप में आत्मसात कर लिया है....आदिवासियों के दुःख में दुखी होते तो उनकी खुशियों में ही अपना आनंद तलाशने वाली इस शख़सियत का नाम......डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा है..... करीब पौने छः फुट और प्रफुल्लित मन के डॉक्टर खैरा गरीबो,आदिवासियों के आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक उत्त्थान के लिए पूरी तरह समर्पित है....बिलासपुर  से अमरकंटक मार्ग पर ग्राम लमनी [अचानकमार अभ्यारणय] को अपनी  कर्मस्थली बना चुके इस शख्स को देखकर एकाएक किसी सूफी संत या दरवेश की याद तरोताजा हो जाती है....खादी के कुरते-पायजामे में उम्र के सात दशक से अधिक की दहलीज पार कर चुकी ये मानवकाया आदिवासियों के बीच 'खैरा गुरूजी' के नाम से आत्मीयता का पर्याय बन चुकी है......हर रोज सुबह गुरूजी दैनिक नित्य-कर्म से निपटने के बाद गाँव के ही एक छोटे से ढाबेनुमा होटल में चाय के एक गरम प्याले की चुस्की लेना नही भूलते....इसके बाद शुरू होता है गाँव की परिक्रमा का दौर ...गाँव के हर घर की चौखट पर डॉक्टर खैरा की दस्तक रोज होती है....अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप आदिवासी गुरूजी का आत्मीयता से स्वागत भी  करते है....एक-एक व्यक्ति का हालचाल पूछते डॉक्टर खैरा गांव के नुक्कड़ पर पहुँचते है...हर रोज सुबह .नुक्कड़ पर बच्चो की भीड़ गुरूजी का इन्तेजार कर रही होती है....गुरूजी सबसे पहले बच्चो को नहलाते-धुलाते है...इसके बाद पढ़ने-पढाने का सिलसिला शुरू होता है....बिना कापी-पुस्तक के डॉक्टर खैरा बच्चो को काफी कुछ बताते है....बच्चो को कपडे सिलकर पहनने,हाथ धोकर खाने की आदत गुरूजी डलवा चुके है...इन सारी बातो में हम गुरूजी के कंधे पर टंगे खादी के झोले का जिक्र करना ही भूल गए....खादी के उस झोले में चाकलेट,बिस्किट,आंवला,चना और कुछ दवाइया होती है...खेल-खेल में पढाई,फिर झोले से खाने की चीजो को निकालकर गुरूजी सबको थोडा-थोडा बाँटते है....जंगल में रहने वालो को आंवला,हर्रा,बहेरा और अन्य वनोषधि के महत्व से रूबरू करवाना गुरूजी नही भूलते....बच्चो के बीच शिक्षा की अनिवार्यता के मद्देनजर उनकी कोशिश होती है कि उन्हें आज कि दुनिया और ज्ञानविज्ञान के साथ-साथ प्रकृति की भी जानकारी मिल सके... गुरूजी का प्रयास होता है की आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षित होने के साथ अपने सांस्कृतिक महत्व को भी समझे.....
                                                                                            आदिवासियों के बीच जिंदगी को एक नई पहचान देने वाले डॉक्टर खैरा की अपनी पहचान कम संघर्षपूर्ण नही है...१९२८ में लाहोर[पाकिस्तान]में जन्मे गुरूजी ने प्रारम्भिक शिक्षा लाहोर में ही ग्रहण की.....सन १९४७ में देश के विभाजन का दंश झेल चुके गुरूजी परिवार समेत दिल्ली आ गए....हिन्दू विश्विद्यालय से समाजशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट और १९७१ में पीएचडी की उपाधि गुरूजी ने हासिल की....दिल्ली विश्विद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप कई साल तक गुरूजी पढाते रहे....इसी बीच सन १९६५ में माता जी के निधन की खबर से डॉक्टर खैरा टूट गए,एकदम अकेले हो गए.....माँ के गुजर जाने के बाद अविवाहित खैरा ने फिर जिन्दगी अकेले ही काटने की ठान ली....डॉक्टर खैरा पहली बार सन१९८४ में दिल्ली विश्विद्यालय के छात्रों को लेकर यहा आये...यहा की सुरम्य वादियों की गूँज डॉक्टर खैरा के मन-मस्तिष्क में घर कर गई....१९९३ में सेवानिवृति के बाद गुरूजी यहाँ आकर रहने लगे....यहाँ के आदिवासियों का भोलापन,उनकी संस्कृति में गुरूजी ऐसे घुले की यही के होकर रह गये...आज वे वानप्रस्थी के रूप आदिवासियों के साथ जंगल में जनचेतना का शंखनाद कर रहे है....


                                                                      आदिवासियों की शेक्षणिक और सामाजिक उन्नति के साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये डॉक्टर खैरा अपनी पूरी उर्जा झोंक चुके है....डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासी विकास से कोसों दूर पाषाणयुग में जी रहे है....बीहड़ो में संवेधानिक मूल आधिकारो की बाते अब बेमानी हो चली है.....जंगलो में रहने वाले आदिवासी अब केवल उपभोग करने वाली वस्तु  बनकर रह गए है..... करीब १७ बरस से आदिवासियों के बीच रह रहे डॉक्टर खैरा मानते है की आदिवासी ही जंगलो की सुरक्षा कर सकते है लेकिन सरकारे और वन महकमा आदिवासियों को जंगल से विस्थापन  के नाम पर खदेड़ रहा है....खैर , डॉक्टर खैरा की निःस्वार्थ कोशिशे आदिवासियों के बीच शिक्षा की अलख जगा रही है और सभ्यता,संस्कृति को बचाने प्रयासरत है.......................................                                                                                         

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