Tuesday, April 19, 2011

गांधी,अन्ना के देश में...

टेलीफोन बिल पटाने वालो की कतार में आज मै डेटा कार्ड का बिल पटाने खड़ा हुआ...ज्यादा तो नही फिर भी आधे घंटे तक खड़े रहने लायक लाइन लगी हुई थी...एक आदमी बड़े जोर से नमस्ते भैया बोलकर पास आया,मैंने सोचा मुझे जनता होगा लेकिन भ्रम चन्द सेकेंडो में दूर हो गया...उसने मेरे पास आते ही कहा बेकार गर्मी में खड़े है २० रूपये लगेंगे २ मिनट में काम हो जायेगा...मतलब जिसने मुझे नमस्कार किया वो दरअसल मुझे नही अपने ग्राहक को सलाम ठोंक रहा था...पीछे के दरवाजे से टेलीफोन का बिल पटाकर वो मुझे रसीद देता और बीस रूपये लेता...जब तक मै कुछ समझ पाता तब तक खिड़की के पास तक मै सरकता हुआ पहुँच चूका था...वो शख्स भी पीछे वालो को सलाम ठोकता दिखा लेकिन इन सब के बाद मै सोचने लगा की भारत के भ्रष्टाचार पर जलवायु परिवर्तन की ही तरह अकादमिक चर्चा अक्सर होती है...कभी कोई अति-उत्साही सुझाव देता है- 'चीन की तरह मौत की सज़ा होनी चाहिए'...फिर अति-व्यावहारिक सुझाव आता है-'रिश्वत का रेट फ़िक्स होना चाहिए...'अकादमिक यानी हमारा कोई 'लेना-देना' नहीं है, 'हम तो देश भविष्य के लिए चिंतित हैं'. भ्रष्टाचार पर चर्चा में हमारा अपना आचरण कितना 'भ्रष्ट' है इसका एहसास न होना एक बड़ी समस्या है.संयोगवश 'लेने' लायक़ हालत मेरी कभी नहीं रही, लेकिन 'देने' का दर्द भूला नहीं हूँ, इसमें 'देने' से मना न कर पाने की ग्लानि भी शामिल है, यानी मैं नहीं कह सकता कि मेरा कोई 'लेना-देना' नहीं है.भ्रष्टाचार लोकाचार है, ये एहसास पहली बार १७ साल की उम्र में हुआ जब नए बने मकान में पानी का कनेक्शन जुड़वाने के लिए अपने हाथों से घूस दी, अपने उबलते ख़ून से ज्यादा परवाह पीने के पानी की थी. उसूलों की लड़ाई में नया घर करबला बन सकता था.
                               अक्सर सोचता हूँ कि भ्रष्टाचार को लेकर भारतीय लोग इतने सहनशील क्यों हैं? क्यों ऐसा होता है कि टेलीफ़ोन घोटाले में पकड़ा गया नेता टेलीफ़ोन चुनाव चिन्ह के साथ चुनाव लड़कर भारी बहुमत से जीत जाता है...बचपन में हमें सिखाया जाता था-- 'जो मिल-बाँट खाए, गंगा नहाए'... कहीं ये उसका असर तो नहीं? रोटी के आटे में से कुछ मछलियों के लिए, एक रोटी गाय के लिए, एक रोटी कुत्ते के लिए, एक कौव्वे के लिए...यानी सबका थोड़ा-थोड़ा हिस्सा...कहीं भ्रष्टाचार को 'सर्वजन सुखाय' की तरह देखने की हमारी आदत तो नहीं. थोड़ी-सी तकलीफ़ सिर्फ़ तब होती है जब 'देना' पड़ता है (बिल्कुल दहेज की तरह) वर्ना यह भी एक व्यवस्था है जिसे कोई अकेले नहीं बदल सकता, और यहाँ आकर महान लोकतंत्र के सभी नागरिक अकेले हो जाते हैं....भ्रष्टाचार ख़त्म करने के नारे कभी-कभी लगते हैं,अभी अन्ना जोर मार रहे है लेकिन ये कोई नहीं सोचता कि अगर सदाचार आ गया तो क्या होगा, इसलिए नहीं सोचता क्योंकि ऐसा होने का यक़ीन किसी को नहीं है,देखते है अन्ना की लड़ाई कितनी राहत देती है...अभी तो ऐसा है की घूस लेते हुए पकड़े गए तो देके छूट जाएँगे, इस बात का पूरा यक़ीन है....मेरे ही न जाने कितने दोस्त-रिश्तेदार उसी के सहारे अपना घर चला रहे हैं. सरकारी और प्राइवेट की तरह यह रोज़गार देने वाला तीसरा बड़ा सेक्टर है, हर दफ़्तर में जितने कर्मचारी नियुक्त होते हैं वे अपने तीन-चार एजेंट तैनात करते हैं, ये एजेंट कभी एप्लायमेंट एक्सचेंज पर नहीं जाते, बेरोज़गारी के आंकड़े में वे शामिल नहीं हैं, उनका घर भी चलता रहता है, आपका काम भी हो ही जाता है...भरष्टाचार से बहुत दुखी होकर एक बार मैं अपने एक अनुभवी और व्यावहारिक मित्र के पास गया. उन्होंने कहा, "तो दे दो न, इतना परेशान क्यों हो रहे हो, दोगे भी और ऊपर से परेशान भी हो".
                                 मेरा मन नहीं माना तो उन्होंने मुझे शांत करने के लिए वही कहा जो गौतम बुद्ध ने पुत्रशोक में विह्वल महिला से कहा था. 'ऐसे घर से एक मुट्ठी चावल ले आ आओ जहाँ कभी कोई न मरा हो...' वे बोले, "मुझे एक ऐसे आदमी से मिलवा दो जिसने घूस न ली हो, न दी हो."

3 comments:

  1. behtreen,aaj ke jwalant samsya par sateek bat.......

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  2. सत्या आपकी इस पोस्ट ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" की याद दिला दी, लगभग सौ साल बाद भी ये कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. न जाने आज की पीढ़ी इससे वाकिफ है या नहीं? कहानी लम्बी है.... इसके आरंभिक अंश यहाँ दे रहा हूँ. नई पीढ़ी से आग्रह है कि ये और प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियां नेट पर उपलब्ध हैं. समय निकाल कर अवश्य पढ़े.
    नमक का दारोगा
    जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।

    यह वह समय था जब अंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।

    मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लडाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले।

    उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, 'बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ॠण के बोझ से दबे हुए हैं। लडकियाँ हैं, वे घास-फूस की तरह बढती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूँ! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो।

    'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।

    'इस विषय में विवेक की बडी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो यह मेरी जन्म भर की कमाई है।

    इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खडे हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुध्दि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृध्द मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए। महाजन कुछ नरम पडे, कलवार की आशालता लहलहाई। पडोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।
    http://premchand.kahaani.org/

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  3. dil ko chhune vali baat aaur aapka bebakpan hamen aapka kayal bana chuka hai....shandaar post

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